मुझे पर्दे की पीछे की दुनिया हमेशा मंच पर चल रहे तमाशे से ज़्यादा रोमांचित करती है। अगर फिल्म बांधकर रखने वाली नहीं होती तो सीन-दर-सीन पर्दे के पीछे की दुनिया दिखाई दे रही होती है मुझे - ट्रॉली पर बैठा हुआ सिनेमैटोग्राफर, स्पूल लिए बैठा साउंड रिकॉर्डिस्ट, टंगस्टन-एचएमआई-एलईडी के पीछे कहीं छत ले लटकता कोई लाइट असिस्टेंट, कोने में थर्मस लिए खड़ा स्पॉट बॉय, डायलॉग्स बांटता सेकेंड असिस्टेंट डायरेक्टर...
फ्लोर पर कैमरे के पीछे मची अफरा-तफरी कैमरे के सामने दिखाई देने वाले बनावटी फ्रेम से कहीं ज़्यादा सजीव... कहीं ज़्यादा जानदार...
मैं प्रोडक्शन वाली रही हूं। बचपन से। स्टेज पर होने से ज़्यादा विंग्स में होने को आतुर। उस तैयारी का हिस्सा होने को आतुर जो एक फंक्शन को ग्रैंड बनाता है, लार्जर दैन लाइफ... बड़ा... बहुत बड़ा... और यादगार। मैं इस बात पर यकीन करती हूं कि स्टेज पर नहीं, किरदार तो विंग्स और मेक-अप रूम में मिलते हैं, कभी किसी की माइक ठीक करते हुए, कभी किसी का मेक-अप।
मेरा यही फितूर मेरी किस्मत से जुड़कर मेरे लिए मौके तलाश करता मुझे दिग्गी पैलेस ले आया है, जयपुर। जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के ठीक एक शाम पहले। पिछले साल आई थी एक विज़िटर के तौर पर। इस साल आई हूं यात्रा बुक्स की टीम का हिस्सा बनकर। किसी हुनर से ज़्यादा मेरा कौतुहल मुझे खींच लाया है यहां, और खींच लाई है उस बेचैनी का हिस्सा बनने की ख़्वाहिश, जो महीनों पहले किसी की नींद हराम करने के लिए काफ़ी होती है।
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल अपने किस्म का दुनिया का सबसे बड़ा साहित्योत्सव है जहां प्रवेश निःशुल्क होता है। इस कार्यक्रम की तैयारी में कितने महीने लगते होंगे, इसका अंदाज़ा इसी से लगा लीजिए कि तकरीबन 15 देशों से कुल मिलाकर 240 वक्ता पहुंचेंगे यहां इस साल, बीस भाषाओं पर बातचीत होगी, और दो से ढाई लाख लोग दिग्गी पैलेस आकर किसी ने किसी रूप में इस बातचीत का हिस्सा बनेंगे। अंदाज़ा इसी बात से लगा लीजिए कि प्रशासन और प्रोडक्शन टीम के अलावा 500 से ज़्यादा volunteers आज की शाम दिग्गी पैलेस में अलग-अलग जगहों पर ब्रीफ ले रहे थे। स्केल का अंदाज़ा इसी बात से लगा लीजिए कि 21 जनवरी को 2014 का साहित्योत्सव ख़त्म होते ही तुरंत अगले साल की तैयारी शुरु हो जाती है, और शुरु हो जाती है स्पॉन्सरों को अगले साल के लिए मनाने की क़वायद। इतने बड़े स्तर पर लॉजिस्टिक्स संभालना ही अपने आप में एक विशालकाय प्रॉजेक्ट होता है, जो सिर्फ पांच दिन नहीं बल्कि पूरे साल चलता है।
और सुनिए कि ये वो आयोजन है जिसने अपने पहले साल में कुल मिलाकर 14 अतिथि देखे थे, और जो थोड़े-बहुत लोग दिग्गी पैलेस तक पहुंच भी गए थे, वो सैलानी थे जो रास्ता भूलकर एसएमएस अस्पताल के सामने की इस तंग गली में गलती से मुड़ गए थे। उसके अगले साल भी इतने ही मेहमान थे कि दरबार हॉल भी नहीं भरा था पूरी तरह। फिर सात-आठ सालों में क्या हो गया कि जेएलएफ में आना प्रतिष्ठा का सवाल बन गया - लिखनेवालों के लिए भी, पढ़नेवालों के लिए भी और मेरी तरह किताबें जमा करने का शौक पालनेवालों के लिए भी?
मुझे लगता है कि हम वाकई अच्छी बातचीत के भूखे होते हैं। जेएलएफ का विस्तार सिर्फ एक आयोजन के विस्तार से कहीं बढ़कर लिखने-पढ़नेवालों या लिखने-पढ़ने की ख़्वाहिश रखनेवालों (या ढोंग रचनेवालों) के मानस-पटल के विस्तार की उत्कट इच्छा का नतीजा है। ये उस जिज्ञासा का नतीजा है जो अपने सीमित दायरे से परे नई बातें, नए विचार, नई आवाज़ें सुनने का आकांक्षी होता है। मुमकिन है कि आनेवालों में एक फ़ीसदी ही इस मकसद के साथ आएं, लेकिन उसी एक फ़ीसदी दर्शक या श्रोतावर्ग की संजीदगी और समझ एक इतने बड़े साहित्यिक आयोजन को साल-दर-साल दोहराने की वजह देता है।
बात सत्रों में बैठे चंद बुद्धिजीवी लेखकों या विचारकों की नहीं है, बात उनके सामने बैठे उस ऑडिएंस की है जिनके पास मंच पर बैठे लोगों से सहमत या असहमत होने का अधिकार है और जिनकी जेबों में इतने पैसे हैं कि दरबार हॉल से निकलकर चार बाग़ की ओर लगे किताब के स्टॉल में जाकर वे किताबें खरीदेंगे, पढ़ेंगे या फिर किसी दिन पढ़ लेने की उम्मीद में उसे अपनी लाइब्रेरी में सजाएंगे। जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल मुझे सिर्फ स्तब्ध नहीं करता क्योंकि यहां देश के ए-लिस्टर लेखक, बुद्धिजीवी और विचारक मौजूद होते हैं। ये जगह मुझे इसलिए स्तब्ध करती है क्योंकि उन लेखकों, बुद्धिजीवियों और विचारकों के विचारों को सुनने की ललक चंद सौ लोगों में तो होती ही है जो एक के बाद सेशन्स में बैठे-बैठे अपने दिमाग के आवर्धक लेंस - मैग्निफाइंग ग्लास - का इस्तेमाल करते हुए समकालीन समाज को नए नज़रिए से देखने की कोशिश करते हैं। यही मुट्ठी भर लोग दिग्गी पैलेस में दिग्गजों के जमावड़े को एक उद्देश्य देते हैं। इन्हीं मुट्ठी भर लोगों की वजह से पूरे साल की मेहनत के बाद निकल कर आने वाला ये साहित्यिक आयोजन सार्थक होता है।
शाम को तैयारियों में आकंठ डूबा दिग्गी कल सुबह से पहचान में नहीं आएगा। गले में डाले हुए पट्टों से लोगों की पहचान होगी। बातों से बात निकलेगी और बहस के मुद्दे खुलेंगे। मुमकिन है कि अहं और ज्ञान कौतूहल पर भारी पड़े। लेकिन मेरे लिए जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल इस लिहाज़ से भी ख़ास होगा क्योंकि निजी तौर पर मेरे लिए जेएलएफ वो माइलस्टोन है जो दिल्ली से आते हुए एक पाठक, श्रोता और इंसान के रूप में मेरे विकास या पतन का पिछले एक साल का ग्राफ मुझे ही दिखाता आया है। पिछले जेएलएफ से अबतक गुज़रे एक साल में मैंने क्या कुछ खोया और क्या कुछ पाया - रास्ते भर सोचती आ रही थी मैं। अगर कुछ नए दोस्त और साथी मिले हैं तो कईयों का साथ छूटा भी है, (और मैंने खो दिए हैं पिस्ता ग्रीन रंग के झुमकों की जोड़ी का एक झुमका, जो बड़े शौक़ से पिछले ही साल पहना था मैंने, वो भी सिर्फ एक बार - एक दिन।) इस एक साल में मैंने अपनी बहुत सारी बेचैनी भी खो दी है, और खो दिए हैं कई सारे झूठे ग़म जिनकी वजह से मेरे हिस्से बहुत सारी प्यारी उदासियां आया करती थीं, और उनसे भी बढ़कर, मिला करती थीं बहुत सारी सांत्वनाएं, बहुत सारा प्यार। और एक साल में जो मैंने हासिल किया है वो अभी भी अमूर्त है, इनटैन्जिबल।
लेकिन इस एक साल में मैंने बहुत सारा कौतूहल हासिल किया है और इस बात की समझ हासिल की है कि मंच पर होने जितना ही ज़रूरी और गौरवशाली मंच के पीछे और मंच के सामने होना होता है - वो भी एक संजीदा और जिज्ञासु श्रोता के रूप में।
9 टिप्पणियां:
जेएलएफ डायरिज़ 1: आईना ज़्यादा है एक ज्ञान के भूखे इंसान का :D पूरी आशा है कि मेरे दोस्त की भूख अगले कुछ दिनों में थोड़ी सी ज़रूर मिटेगी!! इंतज़ार रहेगा, अगले दिन की डायरी का!!
"ज़िन्दगी नेपथ्य में गुज़री मंच पर की भूमिका तो सिर्फ अभिनय है"
कहीं सुना था आज आपका लेख पढ़ कर महसूस हुआ :)
इसे साहित्यिक कुम्भ का नाम दिया जा सकता है।
सुंदर भोजन परोसा है।
क्या शुरुआत है? उम्मीद है डायरी अपडेट होती रहेगी.
नेपथ्य से आती आवाज: आप बेहतरीन संस्मरण लिखते हो :)
"...और इस बात की समझ हासिल की है कि मंच पर होने जितना ही ज़रूरी और गौरवशाली मंच के पीछे और मंच के सामने होना होता है..."
जी, सही कहा और जब इस किस्म की रपटें हम पढ़ रहे होते हैं तो वो क्षण भी गौरवशाली हुआ करता है.
शीर्षक में चूंकि 1 लगा है, अतः उम्मीद है कि ऐसे कई-2 गौरवशाली क्षण आएंगे हमारे लिए :)
बढ़िया प्रोलॉग है.. परदे के पीछे की दुनिया मुझे भी खींचती है.. मेरे अन्दर का जीव जानना चाहता है की जो परदे पर आता है उसके पीछे क्या होता है.. कुछ वैसे ही जैसे लेखकों की डायरियां पढ़ना और जानने की कोशिश करना की उन्होंने अपनी कहानियाँ कैसे लिखीं.. वो पात्र कैसे बने और किन घटनाओं ने उन्हें जोड़ा..
डायरी जारी रहे.. कुछ किताबों और लेखकों के नाम भी गिनाती रहिये.. उन्हें गूगल पर ढूढना और जानना भी सुख देता है :)
अद्भुत! अगले पैकेज का इंतजार है.
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