२६ मई को ही तो आख़िरी पोस्ट लिखी थी - कुल तेरह दिन पहले। तेरह दिन बहुत नहीं होते। फिर ऐसा क्यों लग रहा है कि कई दिनों से कुछ लिखा नहीं, कुछ कहा नहीं, कुछ सुना नहीं। तेरह दिन बहुत नहीं होते लेकिन तेरह दिन बहुत होते हैं, तब कि जब वो तेरह दिन किसी मातमपुर्सी की मानिंद इंटरनेट से दूर बिताए हों। मैं ख़ुद को कम्पलसिव शेयरर मानती हूं। कई बातें बांटना चाहती हूं कि लगता है, एक दिन और निकल जाएगा। लगता है कि जिए हुए लम्हों को कहीं समेटकर रखा नहीं, कहीं रिकॉर्ड नहीं किया तो फिर ये लम्हे दिमाग के किसी ऐसे अंधेरे खोह में जा घुसेंगे जहां ये निकालकर इन्हों यादों की शक्ल देना मुश्किल हो जाएगा।
शायद इसलिए हम पहले डायरियां, चिट्टियां लिखा करते थे। शायद इसलिए हम अब पोस्ट्स, चिट्ठे लिखा करते हैं।
मैं तीस मई की रात बच्चों को साथ पटना पहुंची हूं। बच्चों के साथ अकेले सफ़र करते देखकर मेरे आस-पास के कई लोग अक्सर हैरान होते हैं। उन्हें नहीं मालूम की चार साल की कम उम्र से भी पहले से मैं उन्हें लेकर अकेले सफ़र करती रही हूं। इस तरह मेरे हिस्से में ख़ूब सारी सहानूभूति आती है। इस तरह मुझे ख़ुद को बांधने का, अपने सब्र की इंतहा देखते रहने का मौका मिलता रहता है। हर सफ़र मुझे और शांत और धैर्यशील बना देता है। उनके साथ हर सफ़र के बाद लगता है, मैंने ये कर लिया तो कुछ भी कर लूंगी। दो बेचैन बच्चों की उछल-कूद, नीचे की बर्थ से ऊपर और ऊपर से नीचे कूदते रहने से परेशान सहयात्रियों के चेहरे की शिकन, हर आइसक्रीम, हर चिप्स के पैकेट की ज़िद और फिर इस बीच टॉयलेट के कई चक्कर - सुनने में आसान लगता है, लेकिन सेल्फ-ट्रेनिंग की किसी मुश्किल एक्टिविटी से कम नहीं, क्योंकि इस बीच आपको अपनी धीर-गंभीर छवि बनाए रखने है। आप मां है इसलिए चीख नहीं सकतीं, कान उमेठकर सबके सामने शरारत की सभी सीमाएं तोड़ते बच्चों को दो थप्पड़ नहीं लगा सकतीं। आपको प्यार से काम लेना है और भरी ट्रेन में आपके प्यार की भी ये इंतहा है।
पापा आए हैं लेने, पटना। ट्रेन रात के दो बजे की बजाए डेढ़ बजे ही पहुंच जाती है। अच्छा है कि पापा को स्टेशन वक्त से कम-से-कम एक घंटा पहले आकर बैठे रहने की बुरी आदत है। रिकॉर्ड है कि पापा कहीं कभी वक्त पर नहीं पहुंचते। शाम पांच बजे आऊंगा का मतलब कल शाम पांच बजे भी हो सकता है। मैं देर करता नहीं, देर हो जाती है - हम छोटे थे तो हिना का ये नया-नया रिलीज़ हुआ गीत पापा का फ़ेवरिट हुआ करता था। कभी किसी दुर्लभ दिन अपने ओढ़े हुए संजीदा रूप से निकलकर अपनी असल छवि में आते थे तो पापा यही गाते थे - मेरे जागने से पहले हाय रे मेरी किस्मत सो जाती है....
हमारे साथ होने के लिए पूरा चांद ट्रेन की खिड़की से उचककर गाड़ी की खिड़की पर लटक गया है। पापा ने रात के दो बजे ही सिवान के लिए निकल जाने का फ़ैसला किया है। मुझे भी कोई आपत्ति नहीं। मैं गाड़ी से किसी भी वक्त कहीं भी कितने भी लंबे सफ़र पर जाने के लिए तैयार हो जाती हूं। बच्चे पीछे की सीट पर यूं भी लंबे होकर सो जाएंगे।
शर्मा जी पापा के ड्राईवर हैं। धोती-कुर्ता में चलाते हैं गाड़ी, जबसे उन्हें देख रही हूं तबसे। शर्मा जी की यही पहचान है - उनका लिबास और उनकी सफ़ेद मूंछें। उनकी एक और पहचान भी है। आप आंख मूंदकर भी गाड़ी में बैठें तो बता सकते हैं कि गाड़ी वही चला रहे हैं। स्पीड चालीस से ऊपर जाती नहीं, चाहे हाईवे हो या बाईलेन। तीसरे गियर से चौथे-पांचवे में गाड़ी डालना शर्मा जी अपनी शान के ख़िलाफ़ समझते हैं, चाहे आप एसयूवी में हों या पिकअप वैन में। लेकिन एक शर्मा जी ही हैं जो पापा की रेयरसीट ड्राईविंग के साथ गाड़ी चला सकते हैं।
मुझे किसी भी लंबे सफ़र पर जाते हुए बाबा की बेतरह याद आती है। बाबा हमें अपने किस्म का संगीत बजाने-सुनने की इजाज़त देते थे। उनकी गाड़ी हवा से बातें करती थी। उनके साथ मेरी मर्ज़ी चलती थी। पापा के साथ कभी नहीं चली। मैंने ज़िन्दगी भर बाबा को ख़ुश करने की कोई कोशिश नहीं की। मैं ज़िन्दगी भर पापा का समर्थन जीतने की, उन्हें ख़ुश रखने की जद्दोज़ेहद में लगी रही हूं। फिर भी हमारे बीच ख़ामोशी की दोस्ती ही अच्छी होती है। या फिर महाराजगंज सीट के उपचुनाव की बात करते हुए हम सहज हो सकते हैं। किसी शाही जी, किसी प्रभुनाथ सिंह से मेरा कोई वास्ता नहीं। पापा की ख़ुशी के लिए मैं बड़ी देर तक गोरया कोठी, एकमा, मांझी, बनियापुर, तरैया के जातीय समीकरण और प्री-वोटिंग रूझान के बारे में सुनती रहती हूं। पापा शाही जी के लिए प्रचार कर रहे हैं। ये समझना कोई रॉकेट साइंस नहीं कि शाही जी के जीतने की उम्मीद न के बराबर है - नीतिश और प्रशासन चाहे जितना ज़ोर लगा ले तब भी, सिवान-महाराजगंज के हिस्से चुनाव प्रचार के दिनों में चाहे जितनी बिजली आ जाए तब भी। ये प्रभुनाथ सिंह की मांद है। प्रभुनाथ सिंह यहां के चप्पे-चप्पे से वाक़िफ़ हैं। शाही जी इस क्षेत्र में हेलीकॉप्टर से उतारे गए हैं। ज़मीन पर आकर बहुत दोस्त, हितैषी और समर्थक बनाए हों, ऐसा लगता नहीं। मैं तो पापा को भी ज़मीन का आदमी नहीं मानती। पापा को मैं वॉनाबी ईलीट मानती हूं, लेकिन उनसे कहती नहीं। कहा न, हमारे बीच शब्दों का रिश्ता बने तो हम दोनों हार जाएंगे। इसलिए हमपर हमारी ख़ामोशी का रिश्ता हमेशा तारी रहता है।
मैं पापा को म्यूज़िक सिस्टम चलाने के लिए कहना चाहती हूं। कहती नहीं। बाबा होते तो कहना भी नहीं पड़ता, मेरे दिमाग में ये पहला ख़्याल आता है। सच है कि मैं पापा को हमेशा बाबा की, उन्हीं के पापा की कसौटी पर कसती रहती हूं। पापा और बाबा के बीच उम्र का फ़ासला बहुत कम था। पापा बाबा से महज़ अठारह साल छोटे थे। मैं पापा की बड़ी बेटी - अपने आप बाबा की सबसे छोटी और सबसे दुलारी संतान बन गई। मैं बाबा की पोती नहीं, वो बेटी थी जो उन्हें नसीब नहीं हुई। मुझपर बाबा ने वो प्यार बरसाया जिसका भागीदार वो अपने तीन बेटों को कभी नहीं बना सके थे। मैं आजतक समझ नहीं पाई कि सिबलिंग राईवलरी बाबा या पापा में ज़्यादा थी या मुझमें और पापा मेँ। बहरहाल, हमें पूरी तरह बाप-बेटी बन जाने में कई साल लगे - तब जब मैं बड़ी हो गई। तब जब पापा भी कुछ बड़े हो गए।
पापा का हाथ अपने-आप म्युज़िक सिस्टम के नॉब पर चला गया है। इतनी रात गए पटना का रेडियोसिटी दरौली तक का हाईवे गुलज़ार कर रहा है। बाहर चांद ढलने से पहले पूरे शबाब पर है। चांद रूठा हुआ है, आसमान ने मनाने की कोशिश नहीं की। नई सुबह के आगमन के इंतज़ार में मसरूफ़ रूई-से बादलों को अपने श्रृंगार की फ़िक्र है। जाती हुई रात को विदा कहने का वक़्त किसी के पास नहीं। शर्मा जी अपनी स्पीड से चले जा रहे हैं।
शर्मा जी नहीं बदले। पापा नहीं बदले। ये सड़क नहीं बदली। गांव नहीं बदले। टोटल सैनिटेशन कैंपेन के नाम पर हज़ारों करोड़ रुपए फूंक देने के बाद भी पौ फटने से पहले सीधे आंचल में लिपटी खेत की ओर जाती हुई औरतों की किस्मत नहीं बदली। प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क निर्माण योजना के तहत बनी सड़क के ठीक बीचोबीच लापरवाही से पेडल मारते साइकिल सवार नहीं बदले। ट्रैक्टर खरीदने के लिए इंटरेस्ट फ्री लोन मिलने के बावजूद दो बैलों का जोड़ा हांकते धान का बीया (बीज) डालने से पहले की जुताई के लिए लड़खड़ाते हुए भोर होने से पहले खेत की ओर निकले किसान का जज्बां नहीं बदला। कई यात्राओं के बीच सब्र की प्रैक्टिस करते-करते भी मैं नहीं बदली। फिर एफ़एम पर गाते कुमार शानू की आवाज़ को सुनते हुए भात खाते हुए दांतों के बीच कंकड़ के चले आने का अहसास कैसे बदल जाता?
हम वही पुराने लोग अपने कई वजूदों के बीच के एक उसी पुराने सफ़र, एक उसी पुराने शहर की ओर चले जा रहे हैं और कुमार शानू रोए जा रहे हैं - अब तेरे बिन जी लेंगे हम, ज़हर ज़िन्दगी का पी लेंगे हम...
6 टिप्पणियां:
बदलता कुछ भी नहीं?
शीशा वही रहता है तस्वीर बदलते रहती है
इंसान वही रहता है तक़दीर बदलते रहती है
हमारे सापेक्ष सब बदलता है हम स्थिर होते हैं
खुबसूरत यादों की घड़ियों की पुनरावृत्ति
सहनशील मां! उतावली बेटी!
रोचक रहा इसे बांचना!
यात्राओं में मुझे स्वयं को बहुत दूर रख सब कुछ देखना अच्छा लगता है। एक आदर्श सहयात्री की तरह।
जाती हुई रात को विदा कहने का वक़्त किसी के पास नहीं।
आपसे कैसे कहूं कि आप बहुत शानदार लिखती हैं। छोटी मुंह बड़ी बात हो जाएगी। बारीक से बारीक बात को लिखना, ऑब्जरवेशन और खासकर रिश्तों की बारीकियों पर शानदार नज़र...जबरदस्त। हम सब के हिस्से में यही तो आया है...अब तेरे बिन जी लेंगे हम...
गजब दीदी.. गजब... क्या लिखें हैं... :-)
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