मैं दिल्ली में
रहनेवाले बिहारियों के उस तबके में शामिल नहीं जो साल में सिर्फ दो ही बार घर जाता
है – छठ पर और होली में। मैं उन लोगों में से भी नहीं जो अपने परिजन, कुल-बिरादर,
लोग-समाज, दोस्त-यार, अड़ोसी-पड़ोसियों से साल में दो-एक बार ही मिल पाते हैं। मैं
उन लोगों में से भी नहीं जो छह महीने खटकर घर जाएंगे तभी जेब में इतना रुपया आएगा
कि जिससे परिवार के छठव्रतियों के लिए सूती धोतियां, सूप, अर्घ्य देने के लिए
केतारी, नारियल, नींबू और फल-फूल खरीदा जा सके।
बल्कि मैं बिहारी तो
हूं, लेकिन उन फैंसी शहरी लोगों में से हूं जो बचपन से शहर में पले-बढ़े, जिनके
लिए गांव गर्मी छुट्टियां होती थीं, या फिर फुलवारी की आम-लीची। हम गांव को दूर से
हैरत भरी नज़रों से देखने वालों में से थे जो वहां के होते हुए भी वहां के कभी हो
नहीं पाए। हम अपनी मां से अपनी मातृभाषा में बात नहीं करते। हम अभी भी बिहार आते
हैं, अपने गांव, लेकिन उसी नॉन रेज़िडेंट बिहारी की तरह, जो अपने गांव-कस्बे लौटकर
एक ख़ास फ़ील के लिए आते हैं, या फिर सिर्फ अपने बच्चों को ये दिखाने के लिए कि
जगमगाते मॉलों, चमचमाते फ्लाईओवरों और पूरी होने को कसमसाती असंख्य ख़्वाहिशों के
परे भी एक दुनिया है जो अलग-सी है, जहां हमारी जड़ें तो हैं लेकिन जहां हमारा
नामोनिशां नहीं।
बस इसी ‘बिहारी’ होने के ख़ास फ़ील के लिए
हम छठ में घर आ जाया करते हैं दो-चार साल पर। पिछली बार मैं छठ में जब गांव आई थी
तो बच्चे दो साल के थे। अब आई हूं तो छह साल के हैं। जाने अगली बार सालों का ये
फ़ासला किस आरोही क्रम में बढ़ेगा!
बहरहाल, जब अनुभव ही
लेना है तो कहीं कोई कटौती नहीं होनी चाहिए। अब जब छठ में घर ही जाना है तो छठ के
लिए चलनेवाली स्पेशल ट्रेन क्या बुरी है? बुरी तो नहीं, लेकिन आनंद विहार टर्मिनल
से खुलनेवाली इस ट्रेन का नाम सुनकर ही एक दूसरे एनआरबी यानि नॉन-रेज़िडेंट बिहारी
पतिदेव का दिल बैठ गया है। (यूं तो हम दोनों बिहारी हैं, लेकिन हमारे इलाकों के
बीच पूरे सूबे का फ़ासला है। मैं यूपी के सरहद से जुड़े शहर वाली, वो बंगाल जुड़े
हुए शहर से। इसलिए हम दोनों बिहारी तो हैं, लेकिन पूर्व और पश्चिम का अंतर यहां भी
हावी है।)
पतिदेव अक्सर सोचते
हैं कि मेरी पागल बीवी अपने साथ-साथ बच्चों का भी कचूमर बनाने पर क्यों आमादा रहती
है? पैरों में पहिए लगा रखे हैं, और ख़्वाहिशों को स्केट्स पर फिसलाती चलती है! उसपर उसके भाई-बंधु भी एक
से बढ़कर एक। अरे सब हो जाएगा जीजाजी कहकर अपने कंधे से चिंताओं का भार झाड़कर
मेरे पति के नाज़ुक कंधे पर डाल देनेवाले!
स्टेशन के लिए आते
हुए दल्लूपुरा की गलियों से होकर गुज़रते ही पतिदेव का बीपी हाई होने लगा है। ये
कौन-सा टर्मिनल है, और ये कैसी ट्रेन है? उसपर कमाल ये कि मेरे पास टिकट नहीं। मैं
जानती नहीं कि ट्रेन नंबर क्या है। मैं ये तक नहीं जानती कि ट्रेन के खुलने का सही
वक्त क्या है और हमारा रिज़र्वेशन किस बोगी में है। सोने पर सुहागा कि ट्रेन खुलने
में चंद मिनट बाकी हैं और उस भाई-भौजाई का फोन लगना मुश्किल जिनके पास मेरी टिकटें
हैं और जिनके साथ मैंने गाते-बजाते सीवान उतर जाने की मन-ही-मन धांसू कल्पनाएं भी
कर डाली हैं। सफर करने के मामले में हम कमाल की बेपरवाह, बिंदास, डिसॉर्गेनाइज्ड
फैमिली हैं। हम सिर्फ अपने सफ़र के अनुभवों की ही दास्तानगोई करने बैठें तो
बेस्टसेलर निकाल डालेंगे! उसपर तुर्रा ये कि हर पंद्रह दिन पर फिर भी आईआरसीटीसी का
कर्ज़ उतारने बैठ जाते हैं!
कुंभ का मेला तो
मैंने कभी देखा नहीं, लेकिन स्टेशन पर की भीड़ को देखकर लगता है, ऐसे ही किसी मेले
में लोग बिछड़ जाया करते होंगे। लगता है जैसे पूरा का पूरा भोजपुर अंचल आनंद विहार
पर इकट्ठा हो गया है। मन में इस भीड़ में गुम हो जाने का अपशकुनी ख़्याल आते ही
मैंने दोनों हाथों में कसकर दोनों बच्चों की हथेलियां थाम ली हैं, और उनसे झुककर
कान में पूछा है, मम्मा का फोन नंबर याद है ना? अगर भीड़ में कहीं गुम हो जाओ तो
किसी आंटी को कहना, मम्मा का नंबर लगा दो।
इतना कहने के बाद मैंने
होठों पर इनकी और इनके जैसे बच्चों की हिफ़ाज़त के कई नि:शब्द कलमा पढ़ डाला है। दुआ
का कोई रंग-रूप, शक्ल-सूरत, कोई भाषा, धर्म नहीं होता। मंगलकामना किसी अंचल विशेष
की अमानत भी नहीं होती। मंगलकामनाओं के मौके ज़रूर हम अपनी-अपनी सहूलियत से
मुकर्रर कर दिया करते हैं।
दिल्ली में लाखों की
तादाद में बिहार से लोग रोज़ी-रोटी की तलाश में आते हैं। मेरी ही तरह यहीं रहने लग
जाते हैं, और मेरी ही तरह यहां के हो भी नहीं पाते। नई बन रही इमारतों के बगल में
रहनेवाले कामगर हों या चांदनी चौक की दुकानों में मोटिया या कुली का दिहाड़ी पर
काम करने वाले मज़दूर, कोई रिक्शावाला हो या कोई पानवाला, या फिर किसी हिंदी
न्यूज़ चैनल के दफ़्तर में बैठकर रनडाउन में अपनी ख़बर लगवाने में अपनी उम्र गंवा
देनेवाला पत्रकार, कोई सरकारी मुलाज़िम या फिर किसी स्टार्टअप के साथ अपनी किस्मत
के पलटी खाने का इंतज़ार करता कोई सॉफ्टवेयर इंजीनियर – सब उम्मीद यही रखते हैं कि
एक दिन गांव लौट जाएंगे और अपने हिस्से आनेवाली ज़मीन पर खेती करके बुढ़ापा काट लेंगे।
अपने गांव, अपने शहर लौट जाने की उम्मीद हर बिहारी के घर मिलनेवाली सत्तू की पोटली
की तरह स्थायी होती है। घर, पते, मोहल्ले, पहचान भले बदल जाए, सत्तू का स्वाद वही
रहता है।
सत्तू खाने वाले,
पान-खैनी चबानेवाले, पीला सिंदूर लगानेवाले, बोरों में बांधकर अपनी कमाई घर ले
जानेवाले बिहारियों के बीच थोड़े कम बिहारी ही सही, हम भी स्टेशन पर खड़े हो गए
हैं – ट्रेन के इंतज़ार में। प्लेटफॉर्म पर पहुंचने भर की कीमत दो सौ रुपए है जो
बिहार का ही एक कुली हमसे लेता है, अपने ठेले पर हमारा सामान और हमारे बच्चे लादकर
सही-सलामत बोगी के सामने तक पहुंचा देने के एवज़ में। उस ठेले का ये फ़ायदा होता
है कि हमें प्लेटफॉर्म तक पहुंच जाने के लिए रास्ता मिल गया है और बच्चे भीड़ की
धक्का-मुक्की से बच जाते हैं। आद्या और आदित के साथ उनका एक भाई भी है – दो साल का
अद्वय। तीन बच्चों की सुरक्षा के लिए हम तीन वयस्क तैयार हैं – भाई-भौजाई और मैं।
पतिदेव ने प्लेटफॉर्म पर हमारे साथ खड़े होकर एक अनिश्चितकाल के लिए लेटलतीफ़
ट्रेन का हमारे साथ इंतज़ार करने से बेहतर घर लौटकर कुछ काम निपटा लेना समझा है। उनकी
बिहारियत इस बात से तय नहीं होती कि वो इस भेड़ियाधसान में छठ मनाने के लिए घर
पहुंच पाते हैं या नहीं।
ट्रेन पर सिर्फ चढ़ भर
पाने की मशक्कत शैल चतुर्वेदी की हास्य कविता ‘रेलयात्रा’ को मात दे देती है। पूरी ट्रेन में एसी की एक ही
बोगी है और छह लोगों के कंपार्टमेंट में कुल ग्यारह लोग हैं – पांच वयस्क और छह बच्चे।
ये तो वाकई शुभ यात्रा हो गई है जी!
सब बिहारी एक ही
मकसद से सफ़र कर रहे हैं। सब बिहारी एक ही भाषा में बात कर रहे हैं। सब बिहारियों का
गंतव्य एक ही है। सब बिहारियों की पहचान एक जैसी ही है कि सब देस में होते हुए भी
परदेसी हैं। सब यहां के होते हुए भी कहीं के नहीं हैं। ये सारे बिहारी मुसाफ़िर
हैं और रहते कहीं और हैं, लेकिन इनका घर कहीं और है। सबने अपने उस घर लौट जाने का
अपना सपना बचाए रखा है। सब छठ के घाट पर डूबते-उगते सूरज के सामने नतमस्तक होकर
आशीर्वाद में मंगलकामना ही करेंगे – सुख-संपत्ति, स्वास्थ्य, सफलता और घर-परिवार,
संतान की सुरक्षा। सबके दुखों का रंग-रूप भी एक सा ही होता होगा, लेकिन सब बिहारी फिर
भी एक-दूसरे से कितने जुदा से हैं!
और मैंने घर पहुंचकर
पूरी बिहारन बन जाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। पैरों में आलता लग गया है, धूप
में बैठकर गेहूं सुखाने की प्रक्रिया शुरू हो गई है और मोबाईल पर शारदा सिन्हा छठ
के गीत सुने जाने लगे हैं।
PS: 4 जी के डेटाकार्ड पर तस्वीरें डालने की कोशिशें नाकाम रहीं, और ब्लॉग पर पोस्ट करने की भी। एफबी पर किस्मत आज़मा रही हूं। :(
8 टिप्पणियां:
कमेन्ट लिखने से पहले तुम्हारी ऍफ़. बी. वाल चेक की फोटो देखने को पर अभी और इंतज़ार करना पड़ेगा।
कुछ हो न हो बिहारन में हिम्मत बड़ी होती है। छोटे छोटे बच्चों के साथ सफ़र (हिंदी,अंग्रेजी दोनों वाला ) करने से गुरेज़ नहीं करतीं।
अपने भी बड़े कमाल के अनुभव हैं, छठ वाले न सही गर्मी छुट्टी वाले, माहौल एक सा ही होता है। प्लेटफॉर्म पर मगही, मैथिली , भोजपुरी भाषाएँ सुनते ही लगता है, बिहार तो पहुँच ही गए बस अपने घर तक कदम बढ़ाना बाकी है।
आलता ,बिछिया, लाख की चूड़ियों वाले फोटो का इंतज़ार रहेगा .
अब हमारे शहरों, रायपुर-बिलासपुर में भी छठ घाट हैं और छठ पूजा की धूम (धड़ाका भी खूब होता है) होती है.
kya fantastic likhe hain sakhiji.....
ek-damai se sentiya diye.....
sadar.
तो फिर शुभकामनाएं आपके साथ हैं ...
"जहां हमारी जड़ें तो हैं लेकिन जहां हमारा नामोनिशां नहीं"
इस पंक्ति को सेव कर लिया गया है.
घर और गाँव के फील पर एक और पोस्ट तो बनती है, इंतज़ार रहेगा :)
आज 17- 11 -12 को आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....
.... आज की वार्ता में ..नमक इश्क़ का , एक पल कुन्दन कर देना ...ब्लॉग 4 वार्ता ...संगीता स्वरूप.
"पावन पर्व छठ " की बहुत बहुत बधाई .
रग-रग में बसी उस माटी की महक,चाहे जित्ता बाहर भटक लें,मन को वहीं-वहीं खींच ले जाती है-
छठ पर्व की बधाई !
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