दोनों एक साथ बड़े
हुए थे। सहोदर थे, एक ही आंगन में चलना सीखा था, और एक को देखकर दूसरे ने एक ही
तालाब में तैरना भी सीख लिया था। कई ब्लैक एंड व्हाईट तस्वीरें में दोनों को एक ही
जैसी शर्ट में देखा है कई बार। स्ट्राईप्स का रंग तो मालूम चलता नहीं, लेकिन
पैटर्न देखकर लगता है कि एक ही थान का कपड़ा रहा होगा। बड़े वाले की शादी में छोटे
ने ऐसी आतिशबाज़ी की कि पूरा शहर उस बारात को सालों तक याद करता रहा। दोनों को
राम-लक्ष्मण की जोड़ी कहते थे। ये जब की बात थी, तब की बात थी। अब की हक़ीकत कुछ
और है। दोनों कौन हैं? कोई भी वो दो भाई हो सकते हैं जिन्हें आप जानते हैं। एक-दूसरे
पर मरने वाले, एक-दूसरे के लिए जीने वाले कब और कैसे एक-दूसरे की जान के दुश्मन हो
जाएंगे ठीक-ठीक कहा नहीं जा सकता।
बड़े हो जाने, वयस्क
और समझदार हो जाने के क्रम में सीखी और समझी हुई कई तकलीफदेह सच्चाईयों में से एक
सबसे बड़ा सच जो मैंने सीखा वो ये था कि कोई परिवार ऐसा नहीं होता कि जहां भाई-भाई
का झगड़ा नहीं होता, जहां परिवार का विघटन नहीं होता और जहां पैसे और संपत्ति, घर
और ज़मीन के लिए आपस में टकराव नहीं होता। ज़मीन चाहे एक बित्ता हो या फिर करोड़ों
की हो, लड़ाई उतनी ही तीक्ष्ण, उतनी ही गहरी और उतनी ही लंबी होती है।
मैं इस बारे में
बिल्कुल नहीं लिखना चाहती थी। अगर आपका ब्लॉग आपकी ऑनलाइन डायरी है और डायरी
पब्लिक डोमेन में है तो उसके ज़रिए अपने डर्टी लिनेन कौन सबके सामने धोना चाहेगा?
कुछ बातें इस कदर सच्ची होती हैं कि उनका सच होना चुभता है। कुछ बातें इस क़दर
तकलीफ़देह होती हैं कि उन्हें भुला देने में, उनके बारे में ना बात करने में ही
सुकून आता है। लेकिन हम अगर किसी ख़ास मुद्दे पर चुप्पी साध लेना चाहते हैं तो
इसका मतलब ये है कि वही बात सबसे ज़्यादा खलती है।
ये किस्सा मेरे घर
का भी है। मैं उस परिवार की बड़ी बेटी थी जहां का संयुक्त परिवार मिसाल माना जाता
था, जहां बच्चों को जन्म देने की बारी आई तो मायके के नाम पर मैं अपने चाचा-चाची
के शहर गई, जहां बच्चों से पूछा जाता था कि तुम कितने भाई-बहन हो तो उसका जवाब पांच-सात-बारह-चौदह
होता था कि कज़िन्स का, चचेरे भाई-बहनों के होने का कॉन्सेप्ट तो हमने सीखा ही
नहीं था।
कुछ महीने हुए कि
परिवार टूट गया। जिस चाची को हर रोज़ ये पूछे बिना चैन नहीं आता था कि मेरे घर
खाने में क्या पका है और मैं अभी भी रात को सोने से पहले हॉर्लिक्स पीती हूं या
नहीं, उस चाची ने कई महीने हुए, हमसे बात नहीं की। सुना है कि चाचा ने हमारे
नंबर्स अपने फोन में से डिलीट कर दिए हैं और किसी का किसी से कोई वास्ता ना होने
की कसमें खाई जा रही हैं। यही हाल ससुराल का है। यहां भी झगड़े की मूल जड़ में
संपत्ति थी, और एक-दूसरे के लिए सालों तक पाल कर रखी गई ऐसी शिकायतें थीं जिनका
निदान बातचीत से मुमकिन हो सकता था। पापा और बड़े पापा कई सालों से मिले नहीं,
एक-दूसरे को फोन नहीं किया। कोई बातचीत हो भी तो उसके सिरे कहां से पकड़े जाएं, अब
समझना मुश्किल है। इसलिए दोनों ने कई सालों से एक-दूसरे से बात नहीं की है। उम्र
के जिस मोड़ पर दोनों खड़े हैं, वहां समझौते की गुंजाईश नहीं होती क्योंकि बालों के
साथ-साथ नफ़रत भी पक जाया करती है और कोई किसी को माफ़ करने को तैयार नहीं होता।
कुछ भी शाश्वत नहीं
होता। रिश्ते भी स्थायी नहीं होते होंगे। मौसमों की तरह रिश्तों की तासीर भी बदलती
होगी, और ख़ून भी शायद पानी ही हो जाता होगा। वरना ऐसा भी क्या कि रुपए-पैसों और ज़मीन-जायदाद
के आगे सारे रिश्ते बेमानी हो जाएं? ऐसा भी क्या कि हर आंगन एक कुरुक्षेत्र बन जाए
और हर ज़मीन का टुकड़ा एक हस्तिनापुर? ऐसा भी क्या कि हर भाई को धृतराष्ट्र की तरह
लगता रहे कि उसके साथ नाइंसाफ़ी हुई और इस नाइंसाफ़ी का बदला अगली पीढ़ियों का
चुकाना ही चाहिए? शेक्सपियर ने किंग लियर की प्रेरणा आखिर कहां से ली होगी?
वाल्मिकी ने राम-राज्य के चारों भाईयों की परिकल्पना की होगी तो वहीं किसलिए रावण
के लिए एक विभीषण रच दिया होगा, बाली के लिए एक सुग्रीव?
ख़ून पानी ही होता
होगा शायद, तभी तो चड्ढा भाईयों ने एक-दूसरे पर रिवॉल्वर तानते हुए एक बार भी नहीं
सोचा होगा। ख़ून पानी ही होता होगा शायद कि अपनी जान से बढ़कर ज़मीन के कुछ टुकड़े
लगे होंगे। सोचती हूं कि दूसरी-चौथी-सातवीं दुनिया में फिर से जब आमने-सामने होंगे
दोनों तो क्या एक-दूसरे के लिए इतनी ही नफ़रत होगी? और ऊपरवाले ने सज़ा देने के
लिए दोनों को फिर एक बार भाई बनाकर दुनिया नाम के दोज़ख़ में प्रायश्चित करने के लिए
भेज दिया तो? भाई फिर एक-दूसरे के ख़ून के प्यासे होंगे शायद कि ख़ून पानी ही होता
होगा। तो फिर चड्ढा भाईयों ने एक-दूसरे की जान ली तो नया क्या था?
सच ही तो है कि सारे भाई लड़ते हैं।
ज़मीन की लड़ाई लड़ते हैं, पैसों की लड़ाई लड़ते हैं, द्वेष और ईर्ष्या की वजह से लड़ाई होती है, ताक़त और कुर्सी की लड़ाई लड़ते हैं। अपने अहंकार और स्वार्थ में ये भूल जाते हैं कि एक दिन सब ख़त्म हो ही जाएगा। घर-परिवार-रिश्ते-नाते-दौलत-शोहरत... सब। जो बाकी रह जाएगा, वो नफ़रत होगी जो किसी ना किसी रूप में हमारे मन में एक-दूसरे के लिए बाकी रह ही जाती है।
13 टिप्पणियां:
रिश्तों को समझने के लिए रिश्तों का ज्ञान होना जरूरी है. जब रिश्ता पैसा से हो, रिश्ता जमीन से हो या फिर रिश्ता स्वार्थ से हो तो वह भाई, बहन, चाचा, चाची को क्यों पहचानेगा? वह तो पैसा, जमीन, स्वार्थ को पहचानेगा.... फिर बंदूक के सामने चाचा आए, चाची आए, बाप आए, भाई या बहन आए.. क्या फर्क पड़ता है. जब जीवित इंसान ही रिश्ता नहीं पहचानता है तो फिर निर्जीव बंदूक से क्या शिकायत? जरूरी यह है कि भाई है तो भाई को समझे, बहन है तो बहन को समझे...उस रिश्ते को पहचानें. अगर इतनी भी समझ नहीं है तो रिश्ते बेमानी है.
मैंने सोचा ये पोस्ट पोंटी चड्ढा पर है और मेरा अनुमान सच निकला :-)
फिर ध्यान से पढ़ा ....आप लिखती जो ओरोजिनल हैं मगर चूंकि आप अपने आडियेंस से कनेक्ट नहीं रहतीं और यह कनेक्टिविटी
का ज़माना है इसलिए न चाहते हुए भी संवाद हीनता पसर जाती है .....
आपने एक दुखती नस पर उंगली रखी है जिसका कोई इलाज नहीं है -घर घर की कहानी यही है -शाश्वत है और भारतीय जीवन की एक बड़ी विडंबना भी -हम एक विखंडित सोच वाले समाज में रहते हैं .....आदर्श थोथे हैं ,जीवन मूल्य खोखले और दिखाने वाले मात्र .मैं तो यही मनाता हूँ मानवीय रिश्तों से बढ़ कर रुपये पैसे नहीं हैं ..मगर शायद मेरी यह सोच समृद्धता की सोच है -क्या एक विपन्न दरिद्र व्यक्ति भी यही सोचता है ? वैसे सबसे बड़ी दरिद्रता सोच की होती है मगर तुलसी ने लिखा है ,नहीं दरिद्र सैम दुखी न दीना .....कुछ पैसे के दरिद्र होते हैं ज्यादातर आचरण के ......केवल एक ही रामबाण है इस समस्या का -उभयपक्षों में एक का सर्वस्व त्याग -राम के त्याग सरीखा .......अगर राम कथा मिथक भी है तो भी यही उसकी निष्पत्ति है -त्याग! हमारे शाश्वत भारतीय धर्म -दर्शन में भी त्याग को ही महिमा मंडित
इसलिए ही किया गया है -अनु जी किसी न किसी को त्याग करना पड़ेगा बिना शर्त ,,,अन्यथा आपका हमारा या किसी का भी /सभी का घर /संयुक्त परिवार ऐसे ही टूटता रहेगा .......
दुखी हूँ पोस्ट पढ़कर मगर मुग्ध हूँ आपके स्वाध्याय ,अभिव्यक्ति और लेखन की सिद्धहस्तता पर .....
मैंने सोचा ये पोस्ट पोंटी चड्ढा पर है और मेरा अनुमान सच निकला :-)
फिर ध्यान से पढ़ा ....आप लिखती जो ओरोजिनल हैं मगर चूंकि आप अपने आडियेंस से कनेक्ट नहीं रहतीं और यह कनेक्टिविटी
का ज़माना है इसलिए न चाहते हुए भी संवाद हीनता पसर जाती है .....
आपने एक दुखती नस पर उंगली रखी है जिसका कोई इलाज नहीं है -घर घर की कहानी यही है -शाश्वत है और भारतीय जीवन की एक बड़ी विडंबना भी -हम एक विखंडित सोच वाले समाज में रहते हैं .....आदर्श थोथे हैं ,जीवन मूल्य खोखले और दिखाने वाले मात्र .मैं तो यही मनाता हूँ मानवीय रिश्तों से बढ़ कर रुपये पैसे नहीं हैं ..मगर शायद मेरी यह सोच समृद्धता की सोच है -क्या एक विपन्न दरिद्र व्यक्ति भी यही सोचता है ? वैसे सबसे बड़ी दरिद्रता सोच की होती है मगर तुलसी ने लिखा है ,नहीं दरिद्र सैम दुखी न दीना .....कुछ पैसे के दरिद्र होते हैं ज्यादातर आचरण के ......केवल एक ही रामबाण है इस समस्या का -उभयपक्षों में एक का सर्वस्व त्याग -राम के त्याग सरीखा .......अगर राम कथा मिथक भी है तो भी यही उसकी निष्पत्ति है -त्याग! हमारे शाश्वत भारतीय धर्म -दर्शन में भी त्याग को ही महिमा मंडित
इसलिए ही किया गया है -अनु जी किसी न किसी को त्याग करना पड़ेगा बिना शर्त ,,,अन्यथा आपका हमारा या किसी का भी /सभी का घर /संयुक्त परिवार ऐसे ही टूटता रहेगा .......
दुखी हूँ पोस्ट पढ़कर मगर मुग्ध हूँ आपके स्वाध्याय ,अभिव्यक्ति और लेखन की सिद्धहस्तता पर .....
भाइयों की बात आई तो मुझे अपनी यह कहानी याद हो आई.
http://manojkhatrijaipur.blogspot.in/2010/09/blog-post_16.html
वाल्मिकी ने राम-राज्य के चारों भाईयों की परिकल्पना की होगी तो वहीं किसलिए रावण के लिए एक विभीषण रच दिया होगा, बाली के लिए एक सुग्रीव?
...इसी में आपके प्रश्नों का उत्तर भी छुपा है। वाल्मिकी ने अनायास ही ख्वाब नहीं देखा होगा। सच्चाई तो होगी ही। राम-राज्य भी होगा और विभीषण-बाली भी होंगे। इस संसार में भांति-भांति के जीव तब भी थे आज भी हैं। ऐसा नहीं है कि अब हर घर में भाइयों में रण संग्राम ही होता है। विवाद होते हैं और सुलझा भी लिये जाते हैं। जहाँ नहीं सुलझते रण संग्राम होते हैं।
इसका समाधान यह है कि पिता को जीवित रहते ही अपनी संपत्ति का स्वयम् को जोड़ते हुए बराबर बंटवारा कर देना चाहिए। जो वृद्ध माता-पिता की सेवा करे उसको वह हिस्सा राजी खुशी दे देना चाहिए। जो जीते जी ऐसा नहीं करते मरने के बाद परिवार में कलह की संभावना छोड़ जाते हैं। मृत्यु अवश्यसंभावी है मानकर पहले ही इसके बाद होने वाले परिणामों की कल्पना कर लेनी चाहिए और परिवार को इसके लिए समझदारी से तैयार कर लेना चाहिए। और भी दूसरे उपाय हो सकते हैं। सभी को मिलबैठकर भविष्य में अनिवार्य रूप से आने वाली इस समस्या का समाधान कर लेना चाहिए।
बात सही है, आज जितना अविश्वास बड़ता जा रहा है, उतना ही अपनापन खोखला होता जा रहा है। प्यार और अपनापन कहीं खोता जा रहा है।
मैंने सोचा ये पोस्ट पोंटी चड्ढा पर है और मेरा अनुमान सच निकला :-) मगर यह तो घर घर की कहानी है !
फिर ध्यान से पढ़ा ....आप लिखती जो ओरोजिनल हैं मगर चूंकि आप अपने आडियेंस से कनेक्ट नहीं रहतीं और यह कनेक्टिविटी
का ज़माना है इसलिए न चाहते हुए भी संवाद हीनता पसर जाती है .....आपने एक दुखती नस पर उंगली रखी है जिसका कोई इलाज नहीं है --भारतीय जीवन की एक बड़ी विडंबना भी है -हम एक विखंडित सोच वाले दोगले समाज में रहते हैं .....आदर्श थोथे हैं ,जीवन मूल्य खोखले और दिखाने वाले मात्र .
मैं तो यही मानता हूँ मानवीय रिश्तों से बढ़ कर रुपये पैसे नहीं हैं ..मगर शायद मेरी यह सोच समृद्धता की सोच है -क्या एक विपन्न दरिद्र व्यक्ति भी यही सोचता है ? वैसे सबसे बड़ी दरिद्रता सोच की होती है मगर तुलसी ने लिखा है ,नहीं दरिद्र सम दुखी न दीना .....कुछ पैसे के दरिद्र होते हैं ज्यादातर आचरण के ......
केवल एक ही रामबाण है इस समस्या का -उभयपक्षों में एक का सर्वस्व त्याग -राम के त्याग सरीखा .......
अगर राम कथा मिथक भी है तो भी यही उसकी निष्पत्ति है -त्याग! हमारे शाश्वत भारतीय धर्म -दर्शन में भी त्याग को ही महिमा मंडित इसलिए ही किया गया है -
अनु जी किसी न किसी को त्याग करना पड़ेगा बिना शर्त ...अन्यथा आपका हमारा या किसी का भी /सभी का घर /संयुक्त परिवार ऐसे ही टूटतें रहेंगें .....
दुखी हूँ पोस्ट पढ़कर मगर मुग्ध हूँ आपके स्वाध्याय-परिपक्वता ,अभिव्यक्ति और लेखन की सिद्धहस्तता पर .....
लालच जो न कराये ...
आज तक समझ नहीं आया वो बड़े सी छत जिसमे क्रिकेट खेलते वक़्त चौका मारना कितना मुश्किल होता था , अचानक से आधी क्यूँ हो गयी | उस बाकी आधी छत पर ना तो किसी ने क्रिकेट खेला ना , ना कपड़े सुखाये, ना होली पर कचरी-पापड़ ही बनाये | हाँ झाड़ियाँ दिखती हैं , पीपल के पेड़ भी दीवारों से लगे हुए | मोहल्ले के बच्चों ने उस घर के दरवाजे पर लिख दिया है "यहाँ भूत रहता है"| ऐसी भी क्या ज़रुरत थी उस वक़्त, पता नहीं |
सही कह रही हो आप, ये हर घर की कहानी है |
अनु ... ऐसा लगा तुम मेरी कहानी कह रही हो ... अपने पापा से ज्यादा अपने ताऊ जी की बेटी रही हूँ मैं ... जिसके मुह से पहला शब्द "ताई " निकला था ..मेरी थाली में हमेशा तीन कटोरी सब्जी रही हर रसोई से एक-एक ,आज एक आँगन के टुकड़े की वजह से मैं उनकी बेटी से देवर की बेटी हो गई ... बहुत रोई ...रातों जागी पर जो बिगड़ा वो आज भी नहीं बदला ..... खून पानी हो जाता है पर दिल पता नहीं कैसे बदलता है :-(
फ़िर से पढ़ा और अच्छा लगा।
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