फूलों से अपनी झोली भरने के बदले तांत्रिक जी को कीमत भी अदा करनी होती। हर सुबह कोई ना कोई अपनी हथेली पसार दिया करता था उनके सामने और उनकी झूठी-सच्ची भविष्यवाणियों के बीच चाय और बिस्किट की दक्षिणा भी सौंप दी जाती। मेरे पैरों में पहिए होने की बात उन्होंने ही कही पहली बार। तब नहीं जानती थी कि इसका मतलब दरअसल होता क्या है। अब समझ में आता है कि इसका मतलब ये होता है कि आप निकले तो वसंत कुंज जाने के लिए होते हैं लेकिन होते ग्रेटर नोएडा के रास्ते में हैं (और यमुना एक्सप्रेसवे पर आगरा की ओर आगे बढ़ जाने से खुद को ज़ब्त कर रहे होते हैं) या फिर फरीदाबाद जाते-जाते आपको मथुरा पहुंच जाने की तलब सताने लगती है।
एनएच २४ पर पतिदेव चिढ़ाया करते हैं, "तुम ये देख रही हो ना कि लखनऊ कितनी दूर है?" मैं कहती हूं, "ना। ये कि नैनीताल जाने के लिए कहां से कटता होगा रास्ता।" "पिछले जन्म में ग्रां प्री की हारी हुई रेसर थी?" शायद, इसलिए पतिदेव से कहती हूं, एक बार हिमालयन एक्सपडिशन पर ले चलो, अगले सात जन्म तक अपनी ज़िन्दगी तुम्हारे नाम कर दूंगी। ये भी जानती हूं कि मेरी बेवकूफियों को नज़रअंदाज़ कर देने में ही उनकी भलाई है। छह जन्मों तक पिंड छूटा और ऊबड-खाबड़ रास्तों से बच गए, सो अलग। ज़िन्दगी में कम गड्ढे हैं कि एक्सपडिशन के ख़तरे भी मोल लें?
मैं हर महीने कम-से-कम दो नए शहरों में होने की योजना बना रहती हूं, मेरी ज़िन्दगी का इकलौता मकसद ज़िन्दगीनुमा सफ़र (या सफ़रनुमा ज़िन्दगी) पर दार्शनिक होते रहना है। ये और बात है कि सभी ख्वाहिशें पूरी होती नहीं और हम अपने लिए नए मकसद मुकर्रर कर रहे होते हैं।
आज भी खाली घर से भागकर आउटर रिंग रोड पर थी। बिग एफएम इतना सुनती हूं कि अगला गाना करीब-करीब प्रेडिक्ट कर सकती हूं, बावजूद उसके किशोर कुमार के वही पुराने गाने बजते रहे, मैं सुनती रही और चलती रही। मुझे जीके टू नहीं जाना, सीआर पार्क भी नहीं जाना। मुझे चिराग़ दिल्ली भी नहीं जाना, मूलचंद भी नहीं। एम्स मेरी मंज़िल नहीं, ना मालवीय नगर है। जेएनयू नहीं, एयरपोर्ट नहीं। फिर मुझे जाना कहां है? मैं कहां के लिए निकली थी?
घूमकर फिर नेहरू प्लेस पर हूं। मेरे साथ इस चिलचिलाती धूप में कौन बावरा चाय या कॉफी पीने को तैयार होगा और मैं आइसक्रीम नहीं खाती। मुझे कहीं दूर चले जाना है और मेरी फरियाद एक ही बावरी को समझ में आती है। शहर से बहुत दूर बसनेवाली इस बावरी के पास मेरे जैसे बच्चे हैं, अदद-सा पति है और आवाज़ की बेचैनी फोन पर पढ़ लेने का हुनर है।
मुझे तकरीबन अस्सी किलोमीटर का सफ़र करना होगा टू एंड फ्रो, बट हू केयर्स? गाड़ी में अगले अस्सी घंटे काट लेने का इंतज़ाम है, और मैं गाने सुनते हुए जहन्नुम तक जा सकती हूं। ये तो ख़ैर मेरी पसंदीदा जगह है। बच्चों के बिना मां कैसी लावारिस-सी बातें करती है, नहीं? मैं मुद्दतों बाद घड़ी को लेकर बेफ़िक्र हूं। अपने मर जाने का अफ़सोस ऐसे ही लम्हों में नहीं होगा, शायद।
"नताशा, मैं दो ही चीज़ों के लिए कमाती हूं - एक अपनी गाड़ी में पेट्रोल डालने के लिए और दूसरा हवाई जहाज़ की टिकटें कराने के लिए।"
"अच्छा तो है। तभी तो घुमन्टू हो।"
"घुमन्टु नहीं। घुमन्तू।"
"वन्स ए बिहारी, ऑल्वेज़ ए बिहारी", ये नताशा ने अपने लिए कहा है या मेरे लिए, नहीं समझ में आया। फर्क भी नहीं पड़ता कि मैं उससे फिर से बच्चों के साथ शहर से बहुत दूर किसी नई जगह घूमने जाने की बातें करने लगी हूं।
सफ़र करने से मुझे इस कदर मोहब्बत क्यों है? क्यों ज़िन्दगी का इकलौता मंत्र सैर कर दुनिया की गाफ़िल लगता है? सफ़र करते हुए तेज़ी से पीछे भागते लम्हों का डर नहीं सताता इसलिए। मुसाफ़िर की किस्मत में आगे बढ़ना ही लिखा होता है, इसलिए। अजनबी चेहरों के पीछे से झांकती कहानियां मन-ही-मन बुनना अच्छा लगता है, इसलिए। हर शहर की खुशबू में सराबोर होना अच्छा लगता है, इसलिए।
गली-नुक्कड़ों-सड़कों-चौराहों पर बिखरे पहर अपने शहर में कहां उतने हसीन लगते हैं? इसे इन्फेडिलिटी का नाम दिया जा सकता है, लेकिन मेरे लिए यही इन्फेडिलिटी सैक्रोसैंक्ट है - पवित्र, अस्पर्शनीय, पाक़ साफ़। किसी इंसान पर अंधविश्वास करूं, उससे बेहतर है शहर की नब्ज़ टटोलकर तय करूं कि इस अजनबी पर कितना भरोसा किया जा सकता है। मुझे आजतक किसी अजनबी शहर ने धोखा नहीं दिया, साथ नहीं छोड़ा, तन्हाई नहीं दी अपने शहर की तरह ईनाम में। शायद इसलिए भी, कि अपना शहर है कौन-सा, ये तय नहीं कर पाई अभीतक। लेकिन ये तय कर लिया है कि थोड़ी-सी पहचान आत्मीयता और अजनबीपन, दोनों से ख़तरनाक होती है।
फिलहाल पतिदेव के सवाल पर बेहद संजीदगी से विचार किया जा रहा है। पिछले जन्म में क्या थी, ये जानने के लिए पास्ट लाइफ रिग्रेशन का सहारा लूंगी। ईश्वर ने कमबख्त मेरे पैरों में ही क्यों लगा दिए पहिए? हर लिहाज़ से बनाया बेज़ौक़ (इस नए शब्द के लिए शुक्रिया, नताशा) और शौक़ भी लगाया तो रईसों का?
खानाबदोश हो जाने के भी पैसे लगेंगे क्या? बच्चों को भी सिखा दूंगी ऊंट और घोड़ों की सवारी और हम फ़कीरों की तरह भटका करेंगे दर-ब-दर। कुछ बेतुके ख़्यालों में भी कितना सुख है, नहीं? ऐसे ख़्यालों से नींद आती है या हो जाया करती है फ़ाख्ता, ये तो सुबह पता चलेगा। अभी के लिए सफ़र पर जाने की तैयारी करो, अनु सिंह!
13 टिप्पणियां:
मेरी ज़िन्दगी का इकलौता मकसद ज़िन्दगीनुमा सफ़र (या सफ़रनुमा ज़िन्दगी) पर दार्शनिक होते रहना है ...
बहुत खूब्सूर्ति से मन के भाव पिरोय हैं ...!सुकून है आज आपके आलेख मे ....!सफर मे घूमते हुए सुंदेर भाव ....सकरत्मकता से भरे ....!!
अपने मर जाने का अफ़सोस ऐसे ही लम्हों में नहीं होगा, शायद।
शायद क्या.. पक्का नहीं होगा...
ऐसे लम्हों को जी लो..फिर मरने का अफ़सोस कभी नहीं होगा...
reading d interesting blog..
sipping chilled coffee~
deadly combo.. u made my day'
thanx di<3
सैर कर दुनियां की .....................जिंदगानी फिर कहाँ ...
I LIKE AND OLVE THIS THOUGHT.
SO NICE,BEAUTIFUL
घूमने का इतना शौक...वाकई पहले न कभी देखा न सुना :-)
kitnaa sukoon miltaa hoga
बस एक बार सारे अरमान निकल जाये फिर मरने का गम कौन करे ।
वाह आप ही की तरह मुझे भी किशोर कुमार के गाने बहुत पसंद है और इस एक गाने ने आपकी इस पोस्ट मे चार चाँद का काम किया है। :)
आप तो राहुल सांकृत्यायन की सामान धर्मा निकलीं ...घुमक्कड़ी धर्म को समर्पित ....
सैर कर दुनिया की गाफिल ........
कई हासिल हैं पोस्ट में, लेकिन हासिलों का हासिल-''किसी इंसान पर अंधविश्वास करूं, उससे बेहतर है शहर की नब्ज़ टटोलकर तय करूं कि इस अजनबी पर कितना भरोसा किया जा सकता है। मुझे आजतक किसी अजनबी शहर ने धोखा नहीं दिया, साथ नहीं छोड़ा, तन्हाई नहीं दी अपने शहर की तरह ईनाम में।''
मुझे अनजाने गांवों में अचानक-से पहुंचने पर हमेशा वहां और वहीं सच्चा ''अतिथि देवो भव'' मिला.
चलती जिन्दगी के चलते क्षण,
कँपते कँपते, जलते क्षण।
पढ़कर मन बेचैन हो गया...घुमने के लिए।
मैं तो बस राहुल सांकृत्यायन का यही वाक्य कहूँगा
"घुमक्कड़-धर्म सार्वदैशिक विश्वमव्याापी घर्म है। इस पंथ में किसी के आने की मनादी नहीं है, इसलिए यदि देश की तरुणियाँ भी घुमक्कड़ बनने की इच्छा रखें, तो यह खुशी की बात है।"
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