शुक्रवार, 11 मई 2012

भरोसा करना सिखाती, मगर...

अपने बच्चों को मैंने आस-पास, सूरज-चांद, धूप और बारिश, घास और मिट्टी से प्यार करना सिखाया। उन्हें बताया कि ज़र्रे-ज़र्रे में उस ताक़त का नूर बसता है जो हमें दिखाई नहीं देता, लेकिन जिसकी मर्ज़ी से ही दुनिया क़ायम है। उन्हें बार-बार बताती रही कि कुत्ते-बिल्ली-गाय-बकरी और कीड़े-मकोड़े भी ऊपरवाले की रचना हैं, इसलिए दुर्भाव मत रखो किसी के प्रति। मैं उन्हें लोगों पर भी भरोसा करना ही सिखाती, लेकिन सच तो ये है कि शायद संतुलन आवश्यक होता है इस धरती पर इसलिए भला-बुरा, अच्छा-खराब सब यहीं होता है। तभी तो भरोसे जैसी ताक़त भी बचाकर इस्तेमाल की जाए तो अच्छा। मैं अपने बच्चों को बताना तो यही चाहती हूं कि दुनिया इतनी भी कमीनी और ज़ालिम नहीं, ना इंसानियत सोने की वो चिड़िया है जो विलुप्तता की कगार पर है। लेकिन दिल पर पत्थर रखकर ही सही, अपने बच्चों को सिखाना तो यही होगा कि दुनिया वाकई तुम जैसे निर्दोष मासूमों के भरोसे लायक नहीं और इंसानियत वाकई गुम होने लगी है हमारे आस-पास से। उन्हें बताना ही होगा कि अजनबी ही नहीं, तुम्हारी पहचान के लोग भी फ़ायदा उठाएंगे तुम्हारी कमज़ोरी का, इसलिए ध्यान रखना हमेशा। उन्हें सिखाना होगा कि पांच साल में ही अपनी इंद्रियों को शक्ति प्रदान करना सीखो, ख़ासकर अपनी समझ को। इसलिए क्योंकि भरोसे लायक कम लोग बसते हैं इस धरती पर।

मेरे जैसी मांएं अपने बच्चों के पीछे-पीछे पार्क में, सड़कों पर, घर में और बाहर परछाई की तरह घूमती हैं तो उन्हें हेलिकॉप्टर मदर के ख़िताब से नवाज़ दिया जाता है। मैं तंज कसनेवाले लोगों को जवाब देना नहीं चाहती, क्योंकि ये भी सच है कि अपने बच्चों को आप एक हद तक ही सुरक्षा प्रदान कर सकते हैं। घर से बाहर, स्कूल और पड़ोस में बच्चों की सुरक्षा नागरिक समाज की ज़िम्मेदारी भी बनती है। ये और बात है कि नागरिक समाज भी भरोसे लायक नहीं। वरना बच्चों के यौन शोषण जैसे मुद्दों पर एक पब्लिक फोरम में आकर लिखने की ज़रूरत ही क्यों पड़ती? दुर्भाग्यवश हम ऐसी दुनिया में रहते हैं जहां हवस और हैवानियत ना उम्र देखती है ना जगह। समाज और रिश्तों की मर्यादा का झूठा लबादा कमज़ोर और शोषित उठाए चलता है, और बार-बार उसी चक्रव्यूह में फंसता चलता है। जुल्म करनेवालों से ज़्यादा जुल्म का शिकार हुए लोगों को अपने बचाव में पक्ष मज़बूत करने होते हैं और सफाई लेने-देने की ये प्रक्रिया इतनी दुरूह और जटिल होती है कि कई बार अन्याय और शोषण के ख़िलाफ़ मुंह बंद कर लेने में ही भलाई मान लेने की सलाह दी जाती है। ख़ासकर इसलिए क्योंकि शोषण करनेवाले अधिकांश हमारे अपने करीबी रिश्तेदार या दोस्त या वो लोग होते हैं जिनपर भरोसा ना करने की कोई वजह नहीं होती।


लेकिन मुंह बंद रखा कैसे जाए जब बात हमारे बच्चों की हो? ऐसे में किया क्या जाए, सिवाय ज़ालिम और बेरहम दुनिया को कोसने के? क्या अपने बच्चों की सुरक्षा को वाकई किस्मत के सहारे छोड़ दिया जाए और बंद कर ली जाएं आंखें? जिस देश की तकरीबन चालीस फ़ीसदी आबादी पंद्रह साल से कम की हो, वहां उनकी सुरक्षा के मामलों को कैसे दरकिनार किया जाएगा? गूगल की मदद से ख़ौफनाक आंकड़े पेश किए जा सकते हैं, लेकिन क्या ये सच नहीं कि इन आंकड़ों के बगैर भी हम इस घिनौनी सच्चाई को अनदेखा नहीं कर सकते?

हमारे समाज में बच्चों से यही उम्मीद की जाती है कि वो बड़ों की इज्ज़त करें, बिना कोई सवाल पूछे, बिना आवाज़ ऊंची किए। ख़ासकर घर के बड़ों और शिक्षकों के ख़िलाफ़ तो कभी कुछ कहा ही ना जाए। विरोध का कोई भी स्वर अनुचित और कई बार अक्षम्य माना जाता  है और इसे सीधा परवरिश से जोड़ दिया जाता है। ये भी होता है कि किसी भी तरह के यौन शोषण के मामले में अभिभावक इसलिए भी आवाज़ नहीं उठाना चाहते क्योंकि शर्मिंदगी के साथ-साथ वो अपने मन पर अपराध बोध का बोझ लिए भी चलते हैं। यही शर्मिंदगी और गैर-ज़रूरी अपराधबोध यौन शोषण को बढ़ावा देता है क्योंकि अपराधकर्ता जानता है, उसे ना समाज मुजरिम करार देगा ना भारतीय दंड संहिता में बाल यौन शोषण के ख़िलाफ कोई प्रावधान है। राष्ट्रीय स्तर पर चाइल्‍ड सेक्सुअल अब्युज़ के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई जाए और कोई समेकित रक्षा अभियान शुरू हो, इससे पहले ज़रूरी है कि हम अपने और अपने आस-पास के बच्चों को जहां तक मुमकिन हो, सुरक्षित रखें। फिलहाल दो ही क़दम काफी होंगे – शोषण के खिलाफ किसी भी वजह से मुंह बंद ना रखा जाए, और जितना हो सके, भरोसे जैसे बेशकीमती इंसानी स्वभाव का सोच-समझकर इस्तेमाल किया जाए क्योंकि यहां बस्तियों में आग अपने कुल-खानदान वाले ही लगाते हैं अक्सर। 


(२१ अप्रैल २०१२ को दुनिया मेरे आगे, जनसत्ता में प्रकाशित)

8 टिप्‍पणियां:

Nidhi ने कहा…

सहमत हूँ...पूर्णतया .

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

totally agree..............

effective writing...

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

ध्यान भी रखना होगा, स्वतन्त्रता भी देनी होगी..

Arvind Mishra ने कहा…

आज हम भले ही एक नागरी सभ्यता में साँसे ले रहे हैं ,कुदरत ने हमें बहुत से ऐसे सहज बोध दिए हैं जो हमारी रक्षा करते हैं और कभी कभार हम अपनी भूलों से सबक भी लेते हैं -हम सब इन स्थितियों से गुजरे हैं और आगी की पीढियां भी गुजरेगी-हाँ अभिभावक की चिंता जायज है ...और यथासंभव बचाव के प्रयास भी ...
हेलीकाप्टर मदर -पहली बार सुना ..सैटेलाईट मदर कैसा रहेगा?

Ramakant Singh ने कहा…

अभिभावक की चिंता जायज है ...और यथासंभव बचाव के प्रयास भी ..
.यही तो त्रासदी है
.चेतना के साथ जीना जरुरी है
कोई कुछ कहे जीवन हमारा है .ढंग भी अपना हो
सुन्दर नहीं बहुत सुन्दर

Pallavi saxena ने कहा…

प्रवीण जी यहाँ स्वतन्त्रता ना देने की बात तो कही ही नहीं गयी बात बस इतनी है, की आप अपने बच्चों को स्वतन्त्रता तो दें लेकिन उनके अंदर अपने प्रति ऐसा विश्वास भी कुट-कुट कर भरें कि कुछ भी होने पर वह चुप न रहे और कुछ नहीं तो, जो कुछ भी हुआ उसकी सम्पूर्ण जानकारी अपने अभिभावकों को ज़रूर दें। और आज इस युग में किसी पर भी आँख बंद करके सम्पूर्ण विश्वास कभी न करें।

Rahul Singh ने कहा…

संदेह करते रहने से कायम भरोसा ही भरोसे के काबिल होता है क्‍योंकि भरोसे बदलते देर भी तो नहीं लगती.

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

इस बात को कभी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता सावधानी निरंतर आवश्यक है.हमें जो ठीक लगता है वही करें- कहनेवाले कहते रहें !