इतनी आज़ादी मुद्दतों में नहीं मिली। एक खाली घर नहीं मिला। अपनी मर्ज़ी से सोने जगने, रतजगे करने का सुख नहीं मिला। बच्चों को गर्मी छुट्टी के लिए भेज देने के बाद उस आज़ादी को जीने के तरीके आने चाहिए। बारह घंटों में ही सांसें उखड़ने क्यों लगी हैं फिर?
उन्हें अभी-अभी छोड़कर आई हूं। इरादा है कि एक महीने का वक्त अपना होगा। लिखूंगी, काम खत्म करूंगी, दोस्तों से मिलूंगी और वो सब करूंगी जो पिछले छह सालों में बड़ी मुश्किल से किया, या किया भी नहीं। घर में घुसते ही बड़े जतन से, बड़ी शांति से दो-चार काम निपटाए हैं। कुछ छह ई-मेल, कुल तीन पन्नों की टेढ़ी-मेढ़ी लिखावट, किताब के कुल बारह पन्ने और सन्नाटा। ना। ऐसे नहीं होगा काम। मुझे घर से निकलना चाहिए। शॉपिंग? हेयर स्पा? खुद ही मुस्कुराती हूं। एक घंटे में आमूलचूल बदल डालोगी खुद को अनु सिंह? फिल्म। फिल्म देखकर आती हूं। अगले पंद्रह मिनट में इश्कज़ादे का शो है। गिरते-पड़ते पहुंची हूं, टिकट तो मिला है लेकिन पांच मिनट की देरी की वजह से सलमान की नई फिल्म का ट्रेलर मिस करने के लिए खुद को शायद कभी माफ ना कर पाऊं। अगले दो-चार दिन तो बिल्कुल नहीं।
फिल्म पर टिप्पणी फिर कभी। परमा और ज़ोया की प्रेम कहानी के बीच मेरे सेलफोन पर छलक आते घर-परिवार-यार-दोस्तों के प्रेम को इग्नोर करना पड़ा है। उन्हें क्या बताऊं कि बच्चों को मिस करनेवाली मां से जिस सहानुभूति को जताने के लिए उन्होंने फोन किया होगा, उस सहानुभूति को बेचकर मैं पॉपकॉर्न खा गई?
तन्हाई तो दरअसल शाम को जवां होती है। भरा-पूरा सेक्टर अठारह मार्केट अब वीरान लग रहा है। घर का ताला खोलकर फिर सन्नाटे में जाऊं या यहीं भटकूं देर तक? उसका हासिल? इसका हासिल? उन किरदारों का क्या जो दिमाग में खलबली मचाएं हैं? जिन्हें मार देने या मुकम्मल अंजाम तक पहुंचाने का बीड़ा मैंने उठा लिया है मन ही मन?
झटका तो दरअसल घर आकर लगा है। मैं पिछले कई सालों से घर में कभी अकेली नहीं रही। अब कैसे कटेगी रात? फेसबुक पर तस्वीरें लाइक की हैं, दो-चार दोस्तों के स्टेटस मेसेज पर बेतुकी टिप्पणियां छोड़ी हूं। भाई-भाभियों की तस्वीरें देखकर खामख्वाह संजीदा भी हुई हूं। अपनी प्रोफाइल पिक्चर भी बदल गई, कवर फोटो भी। अब? घड़ी भी दुश्मन हुई है आज तो। पिछले कई घंटों से दस पर अटकी हुई है। दो ही आवाज़ें हैं कमरे में - एसी की भनभनाहट और आशा भोंसले - रात चुपचाप दबे पांव चली जाती है...
टुकड़ों में नींद है, टुकड़ों में सपने। किसी क्लासरूम में हूं और मैथ्स के सवाल हल नहीं रहे। कैल्क्युलस का है, इंटिग्रेशन। मुझे इम्तिहान में फेल हो जाने का डर सताने लगता है। कैल्क्युलस के सवालों से सांसें उखड़ती हैं भला? मेरी उखड़ती हैं। फिर नींद, फिर सपना, फिर मोबाइल के इन्बॉक्स में आए मेसेज। अभी जवाब दे दूं? जाने वक्त क्या हो रहा है? डेकोरम भी कोई चीज़ होती है यार। तुम बच्चों के बिना लावारिस हो तो ऐसा नहीं कि सब हों। फिर सोने की कोशिश।
आदित कैसे सोया होगा बर्थ पर? उसे तो अकेले नींद भी नहीं आती। मेरा हाथ चाहिए अपने आर-पार। और आद्या मेरे बालों से उलझे बिना नहीं सोती। जाने खाना कैसे खाया होगा? रांची राजधानी का खाना दो-चार दिन पहले फूड प्वायज़निंग का सबब बना था। अखबार में पढ़ा था मैंने। गुवाहाटी राजधानी में भी बच्चों को बासी खाना ना दिया हो... मुझे परांठे पैक करके देने चाहिए थे... वो रह लेंगे। कहां रह पाएंगे? मैं नहीं रह पाऊंगी। टिकट कब का है? अनन्या का जन्मदिन है कल। मौसी ने फोन करके अपनी बेटी की सालगिरह पर विश करना याद दिलाया। बड़ी बहन हो ना, सब इंतज़ार करते हैं। अनन्या कितने साल की होगी, ये भी भूल गई। बारह? चौदह? वेक्टर भी पढ़ा था ग्यारहवीं में। उसके सपने क्यों नहीं आते? ज़ोया को अगला जन्म लेना होगा एमएलए बनने के लिए। कहते हैं, शिद्दत से की गई ख्वाहिश पूरी ना हो तो उसे पूरा करने के लिए लेने होते हैं कई जन्म। मेरी सबसे बड़ी ख्वाहिश क्या है? नहीं जानती। सुबह होने में कितना वक्त बाकी है? नहीं जानती। कल क्या काम निपटाने हैं? नहीं जानती। क्या चाहिए? नहीं जानती। क्या नहीं चाहिए? नहीं जानती। कला कौन-सा मकसद पूरा करती होगी? नहीं जानती। किसलिए जद्दोजेहद है, आसानियों के होते हुए भी? नहीं जानती। सुबह चार बजे उठकर ये अगड़म-बगड़म क्यों लिख रही हूं? जानती हूं। तुम दोनों को ये बताने के लिए कि एक रात ऐसी भी थी जब चांद खिड़की पर से होकर गुज़रा था, मैंने खिड़की से हटाए थे पर्दे और सुबह को आते देखा था लम्हा-लम्हा। अपने बच्चों के लिए किए कई रतजगों में से एक रात्रि-जागरण ऐसा भी था। (मैं साढ़े पांच साल बाद भी काट नहीं पाई हूं गर्भनाल। उफ्फ।)
(इस वीडियो में गायत्री है, मेरी मुंहबोली ननद। मेरे बच्चों की गायी बुआ। मैं आशाताई को लेकर बायस्ड हूं लेकिन यही खूबसूरत ग़ज़ल आप हेमंत दा की आवाज़ में भी सुन सकते हैं।)
13 टिप्पणियां:
aap kitna accha likhti hain...
इस आज़ादी का भी एक टाइम होना चाहिए न ! वही किसी पबिलिक टेलीफोन बूथ में सिक्के डालकर समय खरीदने जैसा . कभी कभी लम्बी आज़ादी भी मुई चुभती है . ओर आप जो ये जिंदगी की परतो से परदे उठाती है . एक दम धांसू है जी !
ये सुबह चार बजे का समय -ब्रह्म मुहूर्त भयानक वक्त है जब मनुष्य कंफेसन मूड में होता है -मेरी अभी हाल की एक पोस्ट -शुक्रिया ब्लॉग जगत इसी का परिणाम थी जो झंझावाती साबित हुयी -राजधानी में फ़ूड सप्लाई बनारस की फार्म ने की थी -ढाई लाख जुर्माना हुआ है _बेफिक्र रहें और कैसी माँ हैं जो बच्चों को खाने का पैकेट नहीं थमाया :(
अनु ये जो फुर्सत प्लान करके मिलती है वो थोड़ी उबाऊ भी हो जाती है शुरू के कुछ घंटे हल्का महसूस करते है फिर ...सन्नाटा घर का खालीपन काटने को दौड़ता है ... :-)
नहीं जानती। क्या चाहिए? नहीं जानती। क्या नहीं चाहिए?
बस यही तो मुश्किल है....:)
परिवार घर जाता है तो बस तीन दिन सुहाते हैं, उसके बाद उलझन होने लगती है..
उस गुलामी की आदत हो गई है.अब यह आजादी बर्दाश्त नहीं होगी.
अपने बच्चों के लिए किए कई रतजगों में से एक रात्रि-जागरण ऐसा भी था। (मैं साढ़े पांच साल बाद भी काट नहीं पाई हूं गर्भनाल। उफ्फ।)
बहुत खूबसूरत गज़ल ....
और हाँ ....जीवन चलता है ,लम्हा लम्हा बढता आगे ....गुजारनी पडती हैं कई रातें ऎसी ही ....
वो गर्भनाल कभी नहीं कटता अनु जी ...
हम माओं का दिल ही ऐसा बनाया है उस ईश्वर ने कि हम चाहकर भी अपनी आज़ादी को कुछ घंटों से ज्यादा महसूस नहीं कर पाते... या शायद उन कुछ एक घंटो में भी पूरी तरह नहीं...
गजिब लिखल है... दो पैरे की बाद तो हद्दे कर दिए हैं
इसी को कहते हैं मातृत्व !
लाजवाब, पिछले दिनों में आपकी जो पोस्ट आ रही हैं, उनमें किसे चुनकर अपनी पसंद की पोस्ट में शामिल करूं, तय नहीं कर पा रहा हूं.
और सुबह को आते देखा था लम्हा-लम्हा। अपने बच्चों के लिए किए कई रतजगों में से एक रात्रि-जागरण ऐसा भी था। (मैं साढ़े पांच साल बाद भी काट नहीं पाई हूं गर्भनाल। उफ्फ।)
एक माँ की भावनाओं की महक .अद्भुत प्रसंसनीय .खुबसूरत एहसास ........
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