ठीक साढ़े सात साल पहले पू्र्णियां आई थी, शादी के बाद पहली बार। रांची से भागलपुर के लिए ट्रेन चलती है, पू्र्णियां या कटिहार तक आने का कोई दूसरा रास्ता नहीं। लालू-राबड़ी के राज में शादी हुई थी, सड़कों की हालत ऐसी थी कि झारखंड-बिहार की सड़कों पर सफ़र करना काला पानी की सज़ा भुगतने से कम नहीं था। भागलपुर से पूर्णियां आने में ऐसी हालत हुई थी कि मेरे भीतर के घुमन्तू और रोडी ने भी सड़क पर ना उतरने की कसम खा ली मन-ही-मन।
तो बस, हमने यूं ही पीठ तोड़ते, खेत-खलिहानों से रास्ते तलाशते हुए भागलपुर से पूर्णियां की करीब नब्बे किलोमीटर की यात्रा साढ़े तीन घंटे में तय की। पूर्णियां पहुंची तो हालत ऐसी थी कि घर लाने के बदले पतिदेव ने होटल ले जाना ठीक समझा। मुंह-दिखाई इस हुलिए में नहीं हो सकती, घर से फोन भी आ गया था। फिर हुलिया बदला और लाल जामावार के ऊपर लाल ज़रदोज़ी की चुनरी डालकर मुझे तैयार कर दिया गया। माथे पर वृत्ताकार बिंदी और चमकते सिंदूर को देखकर आईने को खुद को ही मुंह चिढ़ाने का जी हो आया। बहुत बनती थी ना अनु सिंह, अब लो भुगतो।
धीरे-धीरे ले के चलना, आंगन से निकलना, कोई देखे ना दुल्हन को गली में.... मेरी गर्दन तक घूंघट खींच दिया गया और खुद को स्विच ऑफ करने और मूड दरुस्त रखने के लिए मैं मन-ही-मन गुनगुनाती रही। एक बगल बड़ी ननद और दूसरी ओर एनआरआई जेठानी... ठीक-ठाक आधुनिक लोग लेकिन दुल्हन का भी कोई डेकोरम होता है यार। इसलिए चुप रहो और सिर झुकाए गाड़ी में बैठी रहो... मेरा आत्मालाप जारी था।
हम पता नहीं किन-किन गलियों से होकर निकलते रहे। याद नहीं कि दीदी ने कहा या भाभी ने कि देखो, ये पूर्णियां का इकलौता बाज़ार है - भट्ठा बाज़ार। लेकिन मेरे रक़ीबों, देखूं कैसे कि भट्ठा कितना हट्टा-कट्टा है? घूंघट से अपनी हथेलियां और उंगलियों में फंसी एक दर्ज़न अंगूठियों के डिज़ाईन को छोड़कर कुछ और नहीं दिखता।
पतिदेव ने फोन करके गेट खोलने की ताक़ीद दी और हम सड़क से बाएं मुड़े और किसी अहाते में घुस गए। अब पहुंच चुके हैं का इल्म तब हुआ जब दीदी ने मेरा घूंघट एक हाथ और नीचे खींच दिया। फिर सब फास्ट फॉरवर्ड मोशन में चलना याद है। जाने कितनी बार घूंघट गिरा, कितनी बार उठा। जाने कितनी बार लोगों ने रंग-रूप, नाक-नक्श पर टिप्पणियां कीं, जाने कितनों ने साड़ी के रेशम को छूकर देखा। टुकड़ों-टुकड़ों में कान के झुमके और गले में पड़े हार पर होनेवाली बातचीत याद है। टुकड़ों-टुकड़ों में थमना,चलना, गिरना, संभलना याद है। याद है कि अजनबी चेहरों में अपने रिश्तेदारों का अक्स ढूंढती रही थी। ओह मां! मैं किस देस चली आई थी? कौन-सी भाषा बोलते हैं लोग यहां? मैंने किसी बिहारी से ही शादी की थी ना? फिर इतना अंतर कैसे था?
धीरे-धीरे समझ में आया कि मां और पापा के गांवों में फर्लांग-भर की दूरी थी, लेकिन फिर भी परिवारों में अंतर था। मैं तो छलांग लगाकर भोजपुरी बेल्ट से सीधे अंगप्रदेश पहुंच आई थी, यूपी बॉर्डर से उठकर बंगाल बॉर्डर। शादी का कार्ड दिया तो मेरे सहयोगी सिद्धार्थ पांडे ने चिढ़ाया था, तो शहाबुद्दीन के शहर से उठकर पप्पू यादव के शहर जा रही हो।
शाम को बहू के स्वागत में दिए गए भोज में चार ही शक्लें अपनी थीं - दो अपने भाइयों की, और पतिदेव के जिगरी दोस्त गौरव और उसकी बीवी पर्ल की, जो हमारे लिए दिल्ली से पूर्णियां आए थे। मैं उनके गले से लगकर फूट-फूटकर रोना चाहती थी। याद है कि पर्ल का हाथ पकड़कर धीरे से छत पर कहा था, "हाउ द हेल डू आई सर्वाइव दिस? विल आई एवर?"
"यू विल। ऑल ऑफ अस डू।"
"यस। इट्स ए मैटर ऑफ फ्यू डेज़।" मैंने खुद को तसल्ली दी थी, लेकिन उनके वापस जाने के वक्त फिर क्यों बुक्का फाड़कर रोने का दिल करता रहा था?
वो फ्यू डेज़ भी गुज़रे, साल-दो साल, कई साल भी। हम कई बार उस रास्ते से गुज़रे जिससे पहली बार मैं ससुराल आई। लेकिन आज भी पतिदेव की एक आदत नहीं बदली। आरएन शाह चौक पर पहुंचकर घर पर फोन करते हैं और गेट खोलने की ताक़ीद दी जाती है। अर्स्टवाइल परोरा एस्टेट की बहू को तीस सेकेंड भी गेट पर इंतज़ार क्यों करना पड़े?
जाने क्यों इतने सालों बाद भी मैं ससुराल को विस्मय से देखती हूं, करीब-करीब awestruck होकर। किसी तरह की बंदिश ना होने के बावजूद इस अहाते में घुसते ही जाने क्यों अभी भी धड़कनें तेज़ हो जाती हैं और कुछ वैसी ही घबराहट घेर लेती है जैसे पहली बार हुआ था। दो बच्चों के होने के बावजूद।
मेरे कमरे में कबूतर ने घोंसला बना रखा है और अंडों से निकले चूजे अभी-अभी ज़िन्दगी से रूबरू हुए हैं। मां सफाई देती हैं, कोई आता नहीं था इधर इसलिए... अब कैसे तोड़े इसको?
क्या जरूरत है, मैं कहती हूं। पंखे का डर है तो हम दिनभर इस कमरे में नहीं होने की कोशिश करेंगे। बच्चों को बड़ा होने देते हैं। पहला हक़ उनका है।
मां अंडे और फिर बच्चों की रखवाली करती कबूतरी की हिम्मत और लगन का बखान करने लगती हैं। मां को ऐसा ही होना पड़ता है, मां को क्या - औरत को ही। और अंडों को सेने और बच्चों को बड़ा करने के क्रम में कबूतर कहां होता है, मैं मां से पूछना चाहती हूं, लेकिन चुप रह जाती हूं। औरत के गुणों का बखान करने में विघ्न क्यों डाला जाए? शील, सहदयता, हिम्मत, ईमानदारी, प्रेम, धैर्य, क्षमा, एकनिष्ठता.... इतने सारे विशेषणों के डिब्बों को किसी अनचाहे स्टेशन पर क्यों रोकना? मैं सिनिकल ही सही। इस सिनिसिज़्म के साथ हार्मनी बनी रहे, इसके लिए ख़ामोशी सबसे उत्तम रास्ता है।
खाने की मेज़ पर लगे खाने में आधी से ज्यादा चीज़ें घर की हैं - आम घर का, लीची घर की, चीकू घर का, पुदीने का शर्बत घर का, धनिया पत्ती की चटनी घर की, साग घर का, तोरी घर की, भिंडी घर की, गेहूं घर का, सरसों तेल घर का, दालचीनी, तेजपत्ता, करीपत्ता भी घर का। एक मैं ही जाने कहां की।
ख़ामोश! छुट्टियां तो शुरू हुई हैं अभी।
डिस्क्लेमर: इस कोट से मेरा रिश्ता उतना ही समझा जाए जितना मेरे लिखे हुए से होता है - अनइन्टेन्शनल।
5 टिप्पणियां:
फिर से अपना बहू बनना याद आ गया... :))
खुद को ही मुंह चिढ़ाने का जी हो आया।
समग्र बिहारी बहुओं की फीलींग्स एक सी ही क्यूँ होती हैं...:)
यहाँ कुछ बातें हैं जो कभी भी बदली नहीं जा सकतीं....संस्कार और स्टेटस भी कोई चीज़ होती है भला....!!
परम्पराओं को निभाने से कन्धा चौड़ा जो हो जाता है।
जमाना आ रहा है कि इस अनुभव के लिए तरस सकती है आज की पीढ़ी.
प्रवाह पता न चले ऐसी सहज गति.
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