गुरुवार, 3 नवंबर 2011

जान कहां रहती है सदा...

तुम्हें याद करना नहीं चाहती। कोई वजह भी तो नहीं है। सिवाय इसके कि कई बार जीभर के रो लेने के लिए कोई वजह चाहिए होती नहीं अक्सर। लेकिन सालों से तुम्हें एक वजह बनाती रही हूं। जब सूझा नहीं कि ये वीराना क्यों, इतनी तन्हाई क्यों, तो तुम्हारी आवाज़ को आवाज़ लगा दी। एक कोने में बजने दिया तुम्हें, यादों के घने कोहरे ओढ़ लिए और छलकने दिया तुम्हारी रौशन आवाज़ को। क्या पता वही रौशनी कोई रास्ता दिखाए...

लेकिन तुम किसी को क्या रास्ता दिखाती। कोई तदबीर तुम्हारी अपनी बिगड़ी तकदीर ना बना सकी। बल्कि तदबीर पर भी तकदीर का काला साया मंडराता रहा। प्यार में नाकाम इंसान कितना हारा हुआ होता है! क्यों प्यार किया था इतना, कि तकलीफ़ तुम्हें तो डूबा ही डाले, तुम्हारे सुननेवालों को भी ना बख्शे? तुम शापित ही तो रही होगी कि हाथ आई ज़िन्दगी रेत की तरह फिसलती चली गई... मिलोगी कभी तो पूछुंगी तुमसे, प्यार किया क्यों, जिया क्यों, और ऐसे मर क्यों गई। जिससे सबसे ज़्यादा प्यार किया, उसके सब सच झेले, उन फरेबों को भी झेला जो सच के नाम पर तुमपर थोप दिया गया। कैसे झेली होगी बेरूखी? कैसा लगा होगा जब उसकी आंखों में किसी और की परछाई देखी होगी तुमने पहली बार?

ज़िन्दगी से आंखें तुम्हें तो ना चुराना था गीता। तुम्हें ऐसे तो ना जाना था।

तुम्हें फिर से सुनने बैठी हूं। तुम्हारी आखिरी रिकॉर्डिंग रही होगी ये। कैसे मरते हुए भी उस प्यार को याद करके हल्की सी हंसी के साथ गाया होगा ये गीत? घर आकर रोई होगी या प्याला उठाया होगा कोई? अपने भीतर के सारे प्यार को कैसे इतनी सहजता से उडेल दिया होगा इस एक आख़िरी नग़मे में? तुमने आज फिर बेवजह बहुत रुलाया है गीता...

 

2 टिप्‍पणियां:

Arvind Mishra ने कहा…

विकलता से भरी एक प्रस्तुति और उस पर गीत भारी हुआ जाता है ............

Puja Upadhyay ने कहा…

होता है न कि एक ही चीज़ दो लोगों को एक साथ महसूस हो...मैंने भी इस गीत के साथ गीता की कहानी जिस दिन पढ़ी थी, उसके कई दिनों बाद कुछ ऐसा ही लिखा था.

यूँ तो अपना लिंक शायद ही कभी दिया है, पर कहते हैं न दो दर्द मिल कर एक दूसरे का अधूरापन बाँट लेते हैं.

http://laharein.blogspot.com/2010/12/blog-post_20.html

कभी पढियेगा...