स्कूल की खड़ूस प्रिंसिपल सिस्टर क्रिस्टिना को आख़िर लड़कियों पर दया आ ही गई। शुक्र है रेड चैपल में बैठी मदर मेरी का, वरना ये लोग तो हमें पूरी गर्मी झुलसाकर मार ही देते । सुबह पौने दस से चार बजे भी कोई टाईम है स्कूल का? पब्लिक स्कूलों में देख लो, एक बजे घर लौट आते हैं सब। हम ही अभागे अर्द्धसरकारी स्कूलों में कॉन्वेन्ट और सरकारी स्कूल के बीच के किसी अधकचरे से माहौल में फंसे हुए हैं।
ख़ैर, शुक्र है कि कल से मॉर्निंग स्कूल शुरू हो जाएगा। मॉर्निंग स्कूल यानि साढ़े छह से साढ़े बारह। फिर पूरे दिन पर अपना वश। जैसे चाहें दोपहर को मोड़े, जैसे चाहें मैदान में दौड़ते हुए शाम के कंधे पर चढ़कर रात तक पहुंचे और फिर थककर मां का दामन थाम लें। मैं इतनी-सी बात सोचकर बहुत खुश हूं, इतनी खुश कि स्कूल में पूरा दिन काटना मुश्किल।
गुड्डी का बुखार उतर गया होगा। सरद-गरम, मम्मी कहती हैं, और स्कूल से आकर पानी नहीं पीने देती। पांच बहनें हैं ना गुड्डी, उसकी मम्मी को इतना टाईम कहा होता होगा कि उसके सरद-गरम होने ना होने की परवाह कर सकें।
गुड्डी के इस बुखार के चक्कर में हमारा खेलना बंद है परसों से। घर के बाहर अभी भी कित-कित खेलने के लिए लकीरें खींची पड़ी हैं। मैंने देखभाल कर पत्थर के चपटे टुकड़े भी निकाल रखे हैं। ये भी ना हुआ तो हम खो-खो भी खेल सकते हैं आज तो, या फिर पिट्ठू। इसमें भी मन ना लगे तो मैंने दस अच्छी गोटियां चुन रखी हैं खेलने के लिए। उसके घर के आंगन के कोने में सीढ़ियों पर बैठकर गोटियां खेली जा सकती हैं देर तक। हमारी गुड़िया का गौना भी कराना होगा। शादी में समोसे, जलेबी खिलाए थे। गौने में बिस्कुट, लेमनचूस से काम चल जाएगा।
स्कूल का बैग कंधे पर लिए इतनी सारी योजनाएं बनाते हुए मैं घर आ गई हूं। साथ देने के लिए एक पत्थर का टुकड़ा है जिसे गली के मुहाने से ठोकर मारते हुए मेन गेट तक ले आने का लक्ष्य निर्धारित किया है मन-ही-मन। उलटे-सीधे ठोकरों की चोट खाता हुआ पत्थर गली में दाएं-बाएं भटकता है, मैं उसके पीछे-पीछे भटकती हूं। घर की दस कदम की दूरी कई मिनटों में तय होती है। गेट तक पहुंचकर लंबी सांस लेती हूं, पेट में दौड़ते चूहों का हाल पूछती हूं और जल्दी से पानी की बोतल से दो सिप ले लेती हूं अमृत का। घर में मम्मी दस मिनट तक पानी नहीं पीने देंगी वरना।
बैग एक तरफ, बोतल दूसरी ओर। जूते के तस्मों को खोलते हुए याद आया है, कल से रूटीन बदल जाएगा। इस एक बदलाव की खुशी ने मुझे कुर्सी पर फिर से सीधा कर दिया है।
मम्मी की ओर देखती हूं, चुपचाप प्लेट में खाना डाल रही हैं। चाची कोनेवाले कमरे की चौखट पर खड़ी गहरे हरे पर्दों से उलझ रही हैं। उनकी साड़ी का बॉर्डर पर्दे के बीच में बने फूलों के रंग का है। मैचिंग मैचिंग। लेकिन दोनों ऐसे चुप क्यों हैं? मम्मी और चाची में किसी बात पर अनबन हुई हो, हो नहीं सकता। फिर मेरी कोई गलती पकड़ी गई है?
“मम्मी? कुछ हुआ क्या?” उस उम्र में मुझे भूमिका बांधनी नहीं आती थी, अभी भी नहीं आती।
“नहीं। दाल गर्म कर दें?”
“नहीं। वैसे कल से गरम खाना खाएंगे दिन में। मॉर्निंग स्कूल शुरू। सुबह टिफिन में घुघनी दीजिएगा ना? परांठा-वराठा नहीं चाहिए,” मेरा बोलना जारी है, बदस्तूर।
“स्कूल से आकर हम होमवर्क कर लेंगे। पढ़ाई भी हो जाएगी। शाम को खेलेंगे गुड्डी के साथ। टोकिएगा मत। कितना अच्छा होता है मॉर्निंग स्कूल। कितना टाईम होता है सबकुछ करने के लिए। पेंटिंग क्लास के लिए भी स्कूल से सीधे नहीं जाना पड़ेगा। मम्मी... खाना खाकर गुड्डी को देखने जाएं?”
“गुड्डी अस्पताल से नहीं आई है।”
“अच्छा, रात में आएगी तब चले जाएंगे। प्लीज़ मम्मी, थोड़ी देर के लिए। कल भी नहीं गए थे। आप गेट से टॉर्च दिखा दीजिएगा। हम तुरंत मिलकर चले आएंगे।”
“गुड्डी अस्पताल से नहीं आएगी।”
“मतलब? इतनी तबीयत खराब है। फिर चलिए ना, अस्पताल में ही देखकर आते हैं।”
“बबुनी, गुड्डी ना अईहें। गुड्डी गईली।”
“मतलब? चाची क्या बोल रही हैं? आपलोग क्या कह रहे हैं, हमको कुछ समझ नहीं आ रहा,” स्कर्ट के लूप से निकाली गई बेल्ट मेरे हाथ में है। ज़ुराबों से पसीने की बदबू आ रही है, और मैं फिलहाल उन्हें उठाकर बाहर बाल्टी में डालना चाहती हूं। फिर समझ में आया है कि ये लोग कुछ गंभीर बातें कर रहे हैं।
“गुड्डी गईली मतलब?”
“गुड्डी नहीं रही। मर गई आज दोपहर। क्या करोगी बाबू... ईश्वर अच्छे लोगों को अपने पास जल्दी बुला लेता है।”
अचानक याद आया है कि हिंदी में मुहावरे पढ़ाते हुए टीचर ने आज ही ‘काठ मार जाना’ से वाक्य बनाने को कहा था...
………..
गुड्डी होती तो आज इकतीस की होती। मेरी तरह अदद-सा पति होता, दो बच्चे भी होते शायद। उसे लोग उसके ‘गुड नेम’ – अनुपमा – के नाम से बुलाते। उसका कोई अपना उसे प्यार से अनु कहता तो वो कहती, अनु तो एक ही है, मेरी सबसे अच्छी दोस्त।
तुम खेल से कितनी आसानी से बाहर हो गई, नहीं? कित कित का आखिरी गेम मैंने जीता था, याद रखना। तब भी एक संदेश भिजवाया था ऊपर, आज भी याद दिला रही हूं, ईश्वर से पूछना कि अच्छे लोगों को इतनी जल्दी अपने पास बुला लेता है तो उसके स्टैंडर्ड से मुझमें क्या खराबी है?
23 टिप्पणियां:
ओह ..निःशब्द !
................शब्द नहीं मिल रहे.बहुत प्रभावी लिखा है.
बहुत मर्मस्पर्शी और प्रभावपूर्ण ....
निःशब्द .......
बहुत मार्मिक ...
आजकल बढ़िया हिंदी में अगर पढने को कुछ धुन्धो तो दुर्भाग्यपूर्ण कचरा ही नसीब होता है, ऐसे समय पर अनु की हिंदी लेखनी रहत का काम करती है.. बहुत ही बढ़िया..बहुत ही मार्मिक..
:(
अवाक हूँ!
Bahut rulaya aapne didi. Kya kahu. Speechless like everyone else.
मार्मिक ,,,
अत्यधिक प्रभावशाली लेखन
आंसू ही आ गए .............
घर के बाहर अभी भी कित-कित खेलने के लिए लकीरें खींची पड़ी हैं. मैंने देखभाल कर पत्थर के चपटे टुकड़े भी निकाल रखे हैं.
मैं घर आ गई हूं. साथ देने के लिए एक पत्थर का टुकड़ा है जिसे गली के मुहाने से ठोकर मारते हुए मेन गेट तक ले आने का लक्ष्य निर्धारित किया है मन-ही-मन. उलटे-सीधे ठोकरों की चोट खाता हुआ पत्थर गली में दाएं-बाएं भटकता है, मैं उसके पीछे-पीछे भटकती हूं.
फिर लौट कर नहीं आती आवाज़ें...
अपने को भी भगवान का अच्छे का स्टेंडर्ड समझ में नहीं आया, और ये फ़िलोसफ़ी भी कि अच्छे लोगों की भगवान को ज्यादा जरूरत होती है।
I read this too. Loss of words, excess tears.
कुछ भी कहना मुश्किल लग रहा है...बचपन की स्मृतियाँ जाती नहीं मन से...
oh god !!!
प्रभावशाली लेखन
सादर बधाई....
बहुत प्रभावशाली और मार्मिक लिखा है आपने।
सादर
ओह, क्या कहूं
मन को छू गई
मार्मिक!
hriday saprshi....
बहुत ही प्रभावशाली और मार्मिक.
बधाई.
boht acha lekh -thanks
bhaavpoorn....!!
आँखें भर आयीं...बस.
एक टिप्पणी भेजें