बजने दो आज फोन की घंटियां
मर भी जाए तो क्या है
मर जाए एक और डेडलाईन।
गुज़र जाने दो घंटों को
पटरियों पर दौड़ती रेल की तरह।
आने दो ई-मेलों को
घबराए हुए कबूतरों की तरह
भरने दो इनबॉक्स।
जाने दो ट्रैफिक के शोर को
किनारे से,
पीछेवाले बजाते रहें हॉर्न
सरकती रहे एक और भेड़चाल।
उड़ती रहे धूल,
गुज़रती रहे धूप
और निकल जाए आज का दिन भी।
मुझे रुक जाने दो आज,
जीभर के सांस तो लेने दो,
थोड़ी देर तो और सो लेने दो मेरी जान!
थोड़ी देर तो और सो लेने दो मेरी जान!
12 टिप्पणियां:
सुन्दर. मेरी बेटी भी यही कहती है "थोड़ी देर तो और सो लेने दो"
सहज ही है छठ के बाद की यह खुमारी भी! भले ही आप छठ अनुष्ठान में न रही हों मगर पढने वाला तो यही समझेगा न और जब वह अभी अभी पिछली पोस्ट पढ़ा हो !
सच कहा आखिर कब तक भागा जाये कुछ पल चैन से भी जीने दो।
कभी ये पल बहुत सुकून देते हैं ...बहुत बढि़या।
आज 03 - 11 2011 को आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....
...आज के कुछ खास चिट्ठे ...आपकी नज़र .तेताला पर
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बहुत खूब. थोड़ी देर ही सही शांति तो मिले.
सुकूं भरे पल .. अच्छी प्रस्तुति
आदमी की यही बेफिक्री तो गुम हो रही है।
ise padh lagta hai rukna bhi aaj ki bhag-daud ki jindgi me kitna mushkil hai.
गुज़र जाने दो घंटों को
पटरियों पर दौड़ती रेल की तरह।
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और मेरा क्या; जिसके आस पास पटरियां या दौड़ती रेलें कभी खतम होती ही नहीं!
बहुत ही खुबसूरत रचना....
ये तो खास बंगलोर के मौसम के लिए लिखा गया लगता है. यहाँ रोज ही सुबह इतनी प्यारी होती है कि उठने का मन न करे :)
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