बाबा बाबा कही के जे लाल्टू पुकारे ले,
बाबा भईनी डूमरी के फूल मोरे भाई जी।
बाबा जब जीती गईनी,
घरे आईल छोड़ी देहनी,
गंऊआ के छोड़ी दिहनी याद मोरे भाई जी।
जाहूं हम जनती जे
बाबा घरे ना आएब,
बाबा के हम कबहूं ना
जितईती मोरे भाई जी।
अपने घरे बैइठी जइती,
लोगवो के बैठाई देहती,
बाबा के हम भोटवा ना दिलईती मोरे भाई जी।
(ये कविता मेरी मां श्रीमती प्रतिभा सिंह ने 1971 में लिखी - जब उनके बाबा रामदेव सिंह महाराजगंज सीट से जीते, और सांसद बने। रामदेव बाबू ने उस साल बिहार के मुख्यमंत्री रहे महामाया बाबू को हराया था। कहते हैं कि उस साल मुकाबला बहुत ज़बर्दस्त था। उस तिकोने मुकाबले में एक और धुरंधर नेता थे - कम्युनिस्ट नेता इंद्रदीप सिंह। बाबा ने दोनों को हराया और संसद पहुंचे। लेकिन दिल्ली की गलियों में आकर बाबा गांव को भूल गए और उन्हें उसी गांव और वहां की ज़िम्मेदारियां याद दिलाने के लिए मां ने ये कविता लिखी। बाबा गांव लौटे, अगले दस सालों तक सांसद रहे और जनता के नेता कहे जाते रहे। लेकिन ये कविता आज भी उतनी ही सटीक है, उन सभी नेताओं के लिए, जो अपना गांव, अपने लोगों को भूल जाया करते हैं। लाल्टू मेरे छोटे मामाजी का नाम है। )
3 टिप्पणियां:
माई के लिखल अतीक पुरानी कविता ....माई के हमार परनाम कहीं ! खाँटी भोजपुरी पढि के आत्मा जुड़ा गइल .....जैसे माटी के सोंधापन गमकता ओइसन्हें ई कविता मं महाराजगंज के महक बा ......आपो के धन्यवाद ......आपन बोलिया मं लिखत रहीं .
यह कविता हमसे बांटने के लिए शुक्रिया. शायद आज ऐसे ही नेताओं की ज़रूरत है जो आम आदमी का नेता कहलाया जा सके, उम्मीद अभी बाकी है...
कितना सशक्त संदेश है..आभार पढ़वाने का,
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