शीतल आज भी कमरे से बाहर नहीं आई। खाना भी कमरे में ही पहुंचाया गया। कुछ खाया, कुछ प्लेट में ही छोड़ दिया। चिकन को तो हाथ भी नहीं लगाया। एंजेल को कितना पसंद था चिकन! जब टेबल पर खाने बैठते, बगल वाली कुर्सी पर आकर बैठ जाती। कुछ कहती नहीं थी, बस गोल-गोल आंखों से शीतल की ओर देखा करती। जब चिकन का एक टुकड़ा मुंह की ओर बढ़ाया जाता, लपककर ऐसे पकड़ती जैसे पता नहीं कब की भूखी हो! खाने का मज़ा तो एंजेल के साथ आता था।
रवि भी दो दिन से ऑफिस नहीं गए थे। एंजेल के बगैर सबकुछ कितना खाली लग रहा था। कुछ हुआ भी तो नहीं था उसे। रात में खाना खाया और ठीक से ही सोने आई कमरे में। शीतल एसी ऑफ करने के लिए उठी तो देखा कि एंजेल ने पूरे फर्श पर उल्टी कर रखी है। शीतल ने घबराकर रवि को उठाया और रात के तीन बजे से ही एंजेल को अस्पताल ले जाने और डॉक्टर-दवाओं के चक्कर का जो सिलसिला शुरू हुआ, अगले तीन दिनों तक चलता रहा। लेकिन एंजेल को नहीं बचाया जा सका।
शीतल और रवि की तो जैसे दुनिया ही उजड़ गई। एंजेल की उछल-कूद और आवाज़ों से गुलज़ार रहनेवाला घर अब वीरान लगता। शीतल को इस हालत में छोड़कर जाना रवि के लिए मुश्किल था। लेकिन नौकरी तो करनी थी। ऑफिस से बार-बार फोन आ रहा था। पूरी दुनिया के लिए एंजेल एक जानवर भर थी, एक कुतिया, लेकिन रवि और शीतल ने तो उसे बच्चे से बढ़कर पाला था। रवि ये बात किसे-किसे समझाता।
तैयार होकर रवि ने सुबोध को आवाज़ दी। सुबोध ड्राइंग रूम के बाहर दरवाज़े पर खड़ा था, सर झुकाए।
"गाड़ी की सर्विसिंग हो गई?"
"जी साब।"
"इंजन ऑयल बदला था?"
"जी साब।"
"मुझे ऑफिस छोड़कर घर आ जाना। मेमसाब को कही जाना हो तो ले जाना। उनकी तबियत ठीक नहीं है। उन्हें इस हालत में गाड़ी नहीं चलानी चाहिए।"
"जी साब। साब आधे दिन की छुट्टी चाहिए और पांच सौ रुपये भी।"
"क्यों? फिर छुट्टी? मैं कह रहा हूं मेमसाब की तबियत ठीक नहीं है। घर में इतना बड़ा हादसा हुआ है। और तुम कह रहो हो छुट्टी चाहिए?"
"....."
"कुछ बोलते क्यों नहीं? ज़ुबान को लकवा मार गया है?"
"साब, आज सुबह पांच साल का मेरा नाती मर गया। उसको दफनाने जाना है। कफन के लिए पैसे चाहिए थे, इसलिए..."
8 टिप्पणियां:
खूबसूरत और भावमयी प्रस्तुति के लिए धन्यवाद|
भावुक करने वाली कहानी
priya anu ji
" sahitya samaj ka darpan hota hai".
aapki anubhutiyo men yatharth ki jhalak itani
karib hai ki samvedana ka sahi arth pradarshit hota hai . pahali bar dadha aapko .sundar laga .
bhaut -2 dhanyavad.
ओह , बहुत मार्मिक ..
बहुत मार्मिक कहानी ....
यही है मानव जीवन की त्रासदी - कि अपने पास का नज़र नहीं आता !
अपनी सम्वेदनाओं के प्रति हम इतने आसक्त हो जाते हैं कि दूसरों के प्रति हमारी संवेदनाएँ भावहीन हो जाती हैं। बहुत अच्छी कहानी आप लिखती हैं। साधुवाद।
आपके ब्लॉग पर आकर अच्छा लगा , आप हमारे ब्लॉग पर भी आयें. यदि हमारा प्रयास आपको पसंद आये तो "फालोवर" बनकर हमारा उत्साहवर्धन अवश्य करें. साथ ही अपने अमूल्य सुझावों से हमें अवगत भी कराएँ, ताकि इस मंच को हम नयी दिशा दे सकें. धन्यवाद . हम आपकी प्रतीक्षा करेंगे ....
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