पिछले हफ्ते घूमती रही हूं। पहले अहमदाबाद, फिर पुणे, फिर औरंगाबाद होते हुए बुलढ़ाना, फिर नागपुर, और वापस दिल्ली। मकसद था उन बच्चों की ख्वाहिशों को जानना-समझना, जो मेरे अपने नहीं हैं। मेरे अपने नहीं हैं, कुछ तो किसी के भी अपने नहीं हैं शायद। गरीबी, आर्थिक तंगी और कई बार आस-पास का माहौल इन्हें बचपन जीने का मौका नहीं देता, देता भी है तो चंद लम्हों की मोहलत के तौर पर।
मेरा सफ़र अहमदाबाद से शुरू हुआ, जहां मैं एक जनसुनवाई (पब्लिक हियरिंग) देखने गई थी। इस जनसुनवाई की ख़ासियत ये थी कि मुद्दा भी बच्चों से जुड़ा था, वक्ता भी बच्चे थे, श्रोता भी। हां, एक ज्युरी अवश्य उपस्थित थी जिनमें से एक लेखक-पत्रकार थे, एक नामचीन अभिनेत्री, एक अर्थशास्त्री, एक रिटायर्ड पुलिस अधिकारी, और एक चीफ जस्टिस। रंग-बिरंगे होर्डिंग, साफ-सुथरे कपड़ों में उपस्थित 600 बच्चे। इनमें से तीस को सीखा-पढ़ाकर स्टेज पर भेज दिया होगा, मेरे दिमाग में यही ख्याल आया पहले।
अपनी-अपनी कहानियां बच्चों ने गुजराती में सुनानी शुरू की। मैं गुजराती नहीं समझती, लेकिन पहली बार अहसास हुआ कि कुछ भावनाएं भाषा से परे होती हैं। प्रेम की कोई भाषा नहीं तो दुख-तकलीफ की भी कोई भाषा नहीँ। मैं एक-एक बच्चे की कहानी लिखने बैठ जाऊं तो एक महीना लगेगा। लेकिन एक की कहानी सुनाती हूं। नाम-रेहाना मान लीजिए। उम्र-यही कोई ग्यारह-बारह साल। ठीक-ठीक पता नहीं। शिक्षा-चौथी तक पढ़ी। अब स्कूल क्यों नहीं जाती? फिर घर में छोटे भाई-बहनों को कौन देखेगा? काम-सुबह छह बजे से नौ बजे तक सफाई, चौका-चूल्हा। नौ बजे से एक बजे तक अगरबत्ती बनाना। एक से तीन बजे तक खिलाना-पिलाना, चौका-चूल्हा। फिर तीन से नौ बजे तक अगरबत्ती बनाना। नौ से ग्यारह चौका-चूल्हा। किसी ने पूछा-सपना क्या है तुम्हारा? रेहाना ने चिढ़कर कहा-सपना क्या? यही करती हूं, यही करते-करते मर जाऊंगी। कह दूं कि टीचर बनना चाहती हूं तो उससे क्या होगा? उसके साफगोई कानों में शीशे की तरह घुलती रही, कई बच्चे आंखों के कोने पोंछते रहे।
भारत में चौदह साल से कम उम्र के बच्चों से बाल मजदूरी कराना दंडनीय अपराध माना जाता है। हालांकि, ये कानून भी बमुश्किल तीन-चार साल पहले लागू हुआ है। लेकिन इस कानून के घेरे में कई काम नहीं आते। खेतों में काम करना भी उनमें से एक है। कमाल की बात ये है कि सत्तर फीसदी बाल मजदूरी तो दरअसल खेतों में होती है। मुझे ये सारी बातें महाराष्ट्र जाकर पता चलीं। इस वक्त वहां कपास को तोड़ने का काम चल रहा होता है, और यही वो समय है जब बच्चे पूरा-पूरा दिन खेतों में काम कर रहे होते हैं। अपनी नन्हीं-नन्हीं उंगलियां से कपास बीनते समय उनके हाथ लहूलुहान होते हैं, पैरों में छाले पड़ते हैं और धूल-धक्कड़ से फेफड़ों को नुकसान तो पहुंचता ही है। सवाल है कि ये बच्चे काम ना करें तो करें क्या? काम करना क्या बड़ों का "काम" नहीं होता? बच्चों को स्कूल में, गांव की गलियों में, दोस्तों-साथियों के साथ पेड़ों पर धमाचौकड़ी करते हुए अपना बचपन नहीं जीना चाहिए?
ये एक लंबी बहस है, एक लंबी लड़ाई। लेकिन मैं गौतम की कहानी सुनाती हूं आपको। गौतम सात साल का है। आंखें चमकीली, सांवला-सा भोला चेहरा, लेकिन चेहरे पर सबकुछ जानने-समझने की होड़। माथे पर झूल आए भूरे-काले बालों को परे हटाता गौतम भीड़ में अलग-से नज़र आता है। गौतम दलित है, पिता शराबी है, मां नहीं है। स्कूल जाने का तो कोई सवाल ही नहीं था। कभी इस खेत में, कभी उसकी मजदूरी कर गौतम चार पैसे कमाता था। लेकिन गांव के दूसरे बच्चों की पुरज़ोर और लगातार कोशिशों के दम पर गौतम का स्कूल में दाखिला करवाया गया। हर दिन स्कूल छोड़ खेत में भागने का लालच, सताए जाने का ख़तरा। लेकिन दूसरे बच्चे गौतम की हौसला-हफ्जाई करते रहे और गौतम पिछले कुछ महीनों से स्कूल में बना हुआ है। जब हम स्कूल में बाकी बच्चों से बात कर रहे थे तो उन्होंने ही गौतम को ठेलकर हमारे सामने कर दिया। पांच मिनट के भीतर गौतम हमसे बातें कर रहा था, कविता सुना रहा था, यहां तक कि हमारी मेज़बानी अपने घर पर करने की फरमाईश भी की। हम गौतम के घर गए भी, गौतम ने हमने चाय-नाश्ते के लिए भी पूछा। बातचीत और हंसी-मज़ाक के बाद जब हम बाहर निकलने लगे तो गौतम ने अपना दाहिना हाथ बढ़ाया और गर्मजोशी से हाथ मिलाते हुए कहा - "थैंक्यू!"
गौतम खुशकिस्मत था, उसे दोस्तों का साथ मिला। अपना बचपन वापस मिला। लेकिन एक अनुमान के मुताबिक भारत में दो करोड़ से ज़्यादा बच्चे मजदूरी करते हैं। इनकी कई और कहानियां फिर कभी। फिलहाल यही दुआ करूंगी कि सभी बच्चों को गौतम के दोस्तों जैसे साथी मिलें। बच्चे ही बच्चों को सबसे बड़े शुभचिन्तक होते हैं, ये जुड़वां बच्चों की मां से बेहतर कोई नहीं जानता। अपने साथ-साथ अपने साथियों को बचाए रखना, उनकी ज़रूरतों का ख्याल रखना, उनके अधिकारों को समझना, ये बच्चे ही कर सकते हैं दूसरे बच्चों के लिए। तो हम बड़े क्या करें? अपने बच्चों को उनके अपने ही साथियों के प्रति संवेदनशील बनाएं, उन्हें दूसरे बच्चों के साथ बड़ा होने दें, हमारे घेरे से भीतर उनका अपना सुरक्षित घेरा बने। मुझे तो फिलहाल एक सीख और मिली है। मेरे बच्चे मेरे लिए सबसे कीमती हैं। मेरे बच्चों जैसे बाकी बच्चे भी उतने ही कीमती हैं - हमारे लिए, हमारे समाज, हमारे देश के लिए।
6 टिप्पणियां:
अनु जी ,
ये क्या कर रही हैं ? बेटे को दाँव पर मत लगाइये .जिसे न मानना हो न माने .सच्चाई में अपनी एक शक्ति है जो वाणी में ज़ोर भर देती है -वही स्वयं में प्रमाण है.
बाल श्रम का एक और पहलू हमारे घरों में काम करने वाले नौकर नौकरानियाँ भी हैं। बिहार यूपी जैसे इलाकों में ना ये वर्ग पढ़ पाता है। लड़कियों की कम उम्र में शादी हो जाती है। पति अक्सर पियक्कड़ और मारने पीटने वाले मिलते हैं। बचपन तो यहाँ भी पिसता है पर क्या हमारी मध्यमवर्गीय जिंदगी इनके बिना चल पाती है?
बाल श्रम अशिक्षा, बढ़ती जनसंख्या और गाँवों में नवयुवकों के लिए रोजगार के कम होते अवसर और फिर हमारी बढ़ती संवेदनहीनता इन सारे पहलुओं से जुड़ा है। जब तक इन सभी पहलुओं पर एकीकृत ढंग से काम नहीं किया जाएगा ये समस्या ज्यों की त्यों बनी रहेगी।
good post,
so u hav travelled a lot. nice observations.. may the child have his days.
Manoj
रेहाना ने चिढ़कर कहा-सपना क्या? यही करती हूं, यही करते-करते मर जाऊंगी। कह दूं कि टीचर बनना चाहती हूं तो उससे क्या होगा? उसके साफगोई कानों में शीशे की तरह घुलती रही,
kitna sach kaha rehana ne..........:(
mann ko chhuti post....
happy new year in advance...
kabhi aapka apne blog pe intzaar karunga...
मेरे बच्चे मेरे लिए सबसे कीमती हैं। मेरे बच्चों जैसे बाकी बच्चे भी उतने ही कीमती हैं - हमारे लिए, हमारे समाज, हमारे देश के लिए।
अनु जी
नमस्कार !
आप के ब्लॉग पे पहली बार आने का सौभाग्य मिला , आप कि अभिव्यक्ति अच्छी लगी , दिल को छूने वाली . नमन !
साधुवाद .
सादर !
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