सरकार ने भारत में विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए दरवाज़े खोल दिए हैं। हर सिक्के के दो पहलुओं की तरह इस फैसले के भी दोनों पहलू समझ में आ रहे हैं। इसमें कोई शक नहीं कि इससे शिक्षा के क्षेत्र में नए विकल्प खुलेंगे, शिक्षा की गुणवत्ता शायद बेहतर होगी और हो सकता है, देशी-विदेशी विश्वविद्यालयों की इस प्रतिस्पर्द्धा का फायदा उन शिक्षकों को भी मिले जो सालों से कम वेतन का रोना रो रहे हैं।
लेकिन ये तो तय है कि भारत में कैंपस स्थापित करने का सबसे बड़ा फायदा विदेशी विश्वविद्यालयों को ही मिलेगा। शिक्षा के क्षेत्र में भी भारत दुनिया के सबसे बड़े बाज़ारों में से है। भारत से हर साल तकरीबन 1.20 लाख छात्र उच्च शिक्षा के लिए विदेशों का रूख करते हैं, जिसमें से अधिकांश छात्रों की मंज़िल अमेरिका होती है। मानव संसाधन मंत्रालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक विदेशी संस्थानों में पढ़ने के लिए छात्र और अभिभावक सालाना 4 बिलियन डॉलर (तकरीबन 180.2 अरब रुपये) खर्च करते हैं। हैरानी नहीं कि अटलांटा की जॉर्जिया टेक यूनिवर्सिटी ने 2008 में ही भारत में कैंपस खोलने के लिए हैदराबाद में 250 एकड़ ज़मीन खरीद ली थी।
वैसे तो सरकार ने ये शर्त रखी है कि पचास करोड़ की रजिस्ट्रेशन फीस के साथ-साथ संस्थानों को भारत के कैंपस से होने वाला मुनाफा देश से बाहर ले जाने की इजाज़त नहीं होगी। लेकिन इस फ़ैसले का सबसे बड़ा नुकसान होगा बढ़ती हुई फीस। जब ये संस्थान अंतरराष्ट्रीय स्तर की शिक्षा देने का दावा कर रहे हैं, तो ज़ाहिर है, फीस भी अंतरराष्ट्रीय स्तर का ही लेंगे। पहले भी देश में तकरीबन 150 विदेशी शिक्षण संस्थान भारतीय संस्थानों के साथ करार कर कई तरह के कोर्स चला रहे हैं।
एक नज़र डालते हैं ऐसे कुछ कोर्स और उनकी फीस पर। अमेरिका के बाबसन कॉलेज के सहयोग से पर्ल बिजनेस स्कूल में दो साल के एमबीए के लिए आपको 7.5 लाख रुपये (सिक्योरिटी के 30 हज़ार रुपये को मिलाकर) देने होते हैं। इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी एंड मैनेजमेंट (पार्टनर – यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन) की चार साल के बी.टेक. की ट्यूशन फीस करीब सवा छह लाख रुपये है, जबकि दो साल के मैनेजमेंट के लिए 5.8 लाख रुपये फीस है। राष्ट्रीय शैक्षिक योजना एवं प्रशासन विद्यालय (नीपा) की वेबसाईट पर तमाम ऐसे संस्थानों की सूची मौजूद है जो विदेशी विश्वविद्यालयों के साथ मिलकर उच्च शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों में डिग्रियां उपलब्ध करा रहे हैं।
एक बार विदेशी विश्वविद्यालयों ने अपने कैंपस देश में खोले तो साफ तौर पर ऐसे भारतीय संस्थानों की मांग घटेगी जो विदेशी डिग्रियां उपलब्ध करा रहे हैं। लेकिन ये भी सच है कि उच्च शिक्षा की ऐसी सुविधाएं उन्हीं छात्रों को मिल सकेंगी जिनकी जेबों में डॉलर या यूरो होंगे। छात्रों, शिक्षकों और विपक्षी पार्टियों की तरफ से सरकार के इस फैसले पर क्या प्रतिक्रिया आती है, ये देखना अभी बाकी है।
लेकिन हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि जिस देश की 60 फीसदी जनसंख्या की उम्र 25 साल से कम हो, वहां देश की तरक्की के लिए उच्च शिक्षण संस्थानों की सख्त जरूरत है। आंकड़े बताते हैं कि हमारे देश में सिर्फ 7 फीसदी छात्रों के लिए ही हाई स्कूल के बाद शिक्षण सुविधाएं उपलब्ध हैं। सरकारी शिक्षण संस्थानों की हालत कैसी है, इससे हम सब वाकिफ हैं। भारत में कैंपस स्थापित करने का मन बना रहे विदेशी विश्वविद्यालयों ने अपनी फैकल्टी को वहां की तन्खवाह पर भारत आने का निमंत्रण देना शुरू भी कर दिया है। यानि पहले से ही लचर स्थिति से जूझ रहे भारतीय शिक्षण संस्थानों के लिए प्रतियोगिता और कड़ी होने जा रही है। विदेशी विश्वविद्यालयों की नजर आईआईटी और आईआईएम जैसे बड़े संस्थानों की फैकल्टी पर है। उनके पास निवेश के लिए पूंजी होगी और जाहिर है, संस्थानों का मूलभूत ढांचा भी अंतरराष्ट्रीय स्तर का बनाने की कोशिश होगी। हो सकता है इस प्रतियोगिता से से भारतीय विश्वविद्यालयों की नींद खुले और शिक्षा की गुणवत्ता का स्तर बढ़ाने की ओर कुछ कदम भी उठाए जाएं।
लेकिन फिलहाल ये विचार दूर के ढोल लगते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि इस फैसले का फायदा उन्हीं छात्रों को मिलनेवाला है जो पहले भी विदेश जाकर पढ़ाई पूरी करने में आर्थिक रूप से सक्षम हैं। हां, यूजीसी के नियंत्रण में अगर विश्वविद्यालय छात्रों के लिए स्कॉलरशिप की व्यवस्था करें और नए क्षेत्रों में (जैसे बायोटेक्नॉलोजी, ऑटोमोबिल इंजीनियरिंग, स्पेस टेक्नॉलोजी, इन्वेस्टमेंट बैंकिंग, फिल्ममेकिंग) उच्च शिक्षा के अवसर प्रदान करें तो सरकार का ये फैसला वाकई मील का पत्थर साबित होगा।
वैसे बहस यहीं खत्म नहीं हो जाती। ये भी उतना ही ज़रूरी है कि हम उच्च शिक्षा के क्षेत्र में मांग और आपूर्ति के अंतर को अपनी ओर से पाटने की व्यवस्था करें। मानव संसाधन मंत्री कपिल सिबल के मुताबिक 2020 तक भारत को एक महाशक्ति के रूप में दुनिया के सामने पेश करना है तो उसके लिए 27 हज़ार नए उच्च शिक्षण संस्थानों को खोलने की आवश्यकता है। इसमें 269 विश्वविद्यालय और 14 हजा़र कॉलेज शामिल हैं। सच तो ये है चंद विदेशी विश्वविद्यालयों के कैंपस इस ख्वाब को पूरा करने के लिए नाकाफी हैं। मेहनत हमें करनी होगी। बदलाव हमें लाना होगा, ताकि हर कस्बे, हर शहर को एक अदद हाई स्कूल और कॉलेज मुहैया कराया जा सके।
(ये लेख www.janatantra.com पर भी पढ़ा जा सकता है)
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