अंग्रेज़ी के दो बड़े अख़बारों में बरसी का निमंत्रण छपवा दिया गया था। पहले ही पन्ने पर - तीन कॉलम का। इतना ही बड़ा कि सफेद पल्लू माथे पर डाले आजी की गंभीर-सी दिखने की कोशिश में दबी मुस्कान को नज़रअंदाज़ करना मुश्किल था। पूर्णेश्वरी देवी, ये नाम था आजी का। शाश्वती को तो आज पता चला था। आजी उम्र के उस मोड़ पर थीं जहां उन्हें नाम लेकर बुलाने वाला कोई बाकी नहीं था इस दुनिया में। शाश्वती ने उन्हें या तो अम्मा के नाम से जाना या फिर आजी के नाम से। हां, गांव में सब उन्हें ज़रूर बड़की मालकिन कहकर बुलाते थे।
शाश्वती स्कूल ले आई थी वो अख़बार। अपने दोस्तों को दिखाते हुए बोली, ''आजी हैं मेरी, माई ग्रैंडमदर। शी पास्ड अवे ऑन टेन्थ ऑफ मार्च लास्ट इयर। हम बड़ी धूमधाम से इस साल गांव में उनकी बरसी मना रहे हैं। मेरे सभी कज़िन्स आ रहे हैं विदेश से। इट इज़ गोइंग टू बी ए ग्रैंड अफेयर यू सी। पापा तो कहते हैं, चीफ मिनिस्टर भी आएंगे।''
और आते भी क्यों ना। पापा सीएम के निजी फिज़िशियन थे और रूलिंग पार्टी के सबसे बड़े पेट्रन्स में से एक। ममा को तो अगले चुनाव में टिकट दिलवाने की भी बात थी।
वैसे आजी अपने पीछे एक भरा-पूरा, संपन्न और प्रतिष्ठित परिवार छोड़ गई थी। दो बेटियां, जिनमें एक लंदन में थी और एक न्यूयॉर्क में। नाती-नतनी में कोई डॉक्टर था तो कोई इन्वेस्टमेंट बैंकर। दोनों दामाद भी बड़े मशहूर डॉक्टर थे। ये बात और थी कि पिछले पंद्रह सालों में आजी से मिलने कोई नहीं आया था। बेटियां मां का हाल जानने के लिए भाइयों को ही फोन कर लिया करती थीं कभी-कभी।
दो बेटे भी थे आजी के। शाश्वती के पापा से बड़े डॉ महेन्द्र प्रसाद शाही - लखनऊ में सिविल सर्जन थे। उनका एक बेटा अमेरिका के केलॉग्स बिज़नेस स्कूल में था तो दूसरा रोड्स स्कॉलरशिप पर ऑक्सफोर्ड चला गया था। आजी से तो ख़ैर बड़े पापा भी शायद ही कभी मिल पाते थे। साल-दो साल में एक बार गांव चले आया करते। लखनऊ से सीवान आना भी तो आसान नहीं था। ऊपर से गांव तो और बत्तीस किलोमीटर दूर। सड़कें ऐसीं कि बड़ी ममा का डिस्क जवाब देने लगता। फिर ममा और बड़ी ममा ने आपस में ही तय कर लिया कि साल में एक-एक बार बारी-बारी से आजी को देखने आ जाया करेंगी। इतना वक्त तो था नहीं कि गांव आकर आजी के पास महीने-दो महीने रह लेती दोनों। ममा को पार्टी के काम से छुट्टी नहीं मिलती थी और बड़ी ममा को अपनी किट्टी पार्टियों और सोशल फंक्शन्स से। फिर विदेश भी तो जाना होता था परिवार के बाकी लोगों से मिलने के लिए। और आजी थीं कि अपना गांव और अपने खेत छोड़ने को कतई तैयार नहीं थीं।
एक दिन बड़ी बुआ ने फोन पर ममा से आजी के बारे में पूछा। ममा का जवाब शाश्वती को बहुत पसंद आया था। ''नो न्यूज़ इज़ गुड न्यूज़ जीजी। आप बेवजह इतनी फ़िक्र करती हैं अम्मा की। जब हफ्तों तक कोई ख़बर ना मिले तो समझ लीजिएगा सब ठीक ही होगा। खु़दा ना ख़ास्ता कुछ हो गया तो वक्त रहते ख़बर कर देंगे हम आपको।''
लेकिन आजी ने किसी को कोई वक्त नहीं दिया था। अपने नौकरों के साथ खेती-बाड़ी संभालते, कटनी-दौनी कराते एक रात छियासी साल की आजी चुपचाप इस दुनिया से चली गईं, किसी से बिना कुछ कहे-सुने, बिना किसी शिकायत के।
बड़े पापा किसी सेमिनार में हिस्सा लेने के लिए कैनबेरा गए थे। बड़ी बुआ और फूफाजी एथेन्स में थे, लंबी छुट्टियों के लिए। छोटे फूफाजी की ओपन हार्ट सर्जरी हुई थी और छोटी बुआ उन्हीं के साथ अस्पताल में थीं। संयोग से पापा पटना में ही थे। आजी के मुंशीजी सुबह चार बजे ही घर पहुंच गए। आजी के मरने की ख़बर पर पापा की प्रतिक्रिया भी बेहद सधी हुई रही। कहीं कोई रूदन-क्रंदन नहीं, रोना-कलपना नहीं। बड़े व्यावहारिक ढंग से पापा ने अपनी फोनवाली डायरी निकालकर सबको ख़बर देना शुरू कर दिया। फोन पर बात करते हुए उनकी आवाज़ में भी संयम था। ममा ने ज़रूर चार आंसू बहाए - ये कहते हुए कि कैसे अम्मा उन्हें बिना सेवा का मौका दिए चली गईं। बीच-बीच में वे गांव से आनेवाले गेहूं और चावल के बोरों और सरसों तेल के कनस्तरों की चर्चा भी करती थीं जो आजी मौसम-दर-मौसम पटना भेज दिया करती थीं। ममा को तो इसकी फिक्र थी कि अब पुश्तैनी मकान और खेतों की रखवाली कौन करेगा।
बहरहाल, सात बजते-बजते पापा के सभी करीबी दोस्त घर आ गए थे। पापा सक्सेना अंकल और सामनेवाले डॉ. लाल को लेकर अपनी इनोवा में गांव चले गए। ममा और शाश्वती घर पर ही रुक गए। अंत्येष्टि गांव में ही हुई और पापा देर रात घर भी लौट आए। आर्यसमाजी तरीके से बाकी सब क्रिया-कर्म करने का फ़ैसला लिया गया। पापा का तर्क था कि घर के बाकी सदस्यों के बगैर श्राद्ध का कोई औचित्य नहीं बनता। ममा भी मान गईं। अगले सोमवार को उन्हें पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के लिए जयपुर जाना था और वो हर हाल में बैठक में मौजूद रहना चाहती थीं।
जिस आजी को शाश्वती ने जीते जी मुश्किल से देखा, उस आजी को अब वह हर सुबह ड्राइंग रूम में मुस्कुराते देखा करती। उनकी तस्वीर पर चंदन की बड़ी-सी माला टांग दी गई थी और पापा सुबह-सुबह वहां अगरबत्ती जलाना नहीं भूलते।
बड़े पापा तीन हफ्ते बाद लखनऊ लौटे तो पापा से फोन पर कहा, ''श्राद्ध तो हम कर नहीं पाए ठीक से अम्मा का। एक काम करो वीरेन्द्र। बरसी करेंगे हम धूमधाम से अगले साल। गांव ही चलेंगे सब लोग। दोनों जीजी और बाकी बच्चों को अभी से ख़बर कर देते हैं। इट विल बी ए नाइस गेट टूगेदर। व्हॉट डू यू से?''
पापा तुरंत राज़ी हो गए। आजी की पहली पुण्यतिथि की तैयारी के लिए पूरे बारह महीने का वक्त था। ममा ने तो अपनी एक डायरी भी तैयार कर ली जिसमें मेहमानों के नाम नोट किए जाने लगे। बरसी क्या होती है, ये शाश्वती की समझ से बाहर था। बल्कि कभी-कभी तो उसे लगता कि ये बात ममा-पापा की समझ के बाहर थी। उन सबको उस भव्य आयोजन की फिक्र थी जिसकी बदौलत उन्हें गांव-समाज में अपनी प्रतिष्ठा मज़बूत करने का मौका मिलता। बड़े पापा और बड़ी ममा बरसी के एक हफ्ते पहले ही गांव पहुंच गए थे। उससे पहले ममा-पापा ने जाकर घर के रंग-रोगन का काम पूरा करवा दिया। कोई पांच सौ ख़ासमख़ास मेहमान आनेवाले थे बरसी में।
दोनों बुआ, फूफाजी और बाकी सारे बच्चे दो दिन पहले दिल्ली आए थे। बड़े पापा और बड़ी ममा गए थे सबको लेने के लिए। वैशाली एक्सप्रेस के सेकेन्ड एसी के आधे डिब्बे में भरकर शाही परिवार सीवान पहुंचा। सीवान के स्टेशन पर लोग घूम-घूमकर इस अनोखे परिवार को देखते रहे। गांव की सीमा पर से ही सड़क के दोनों ओर खड़े होकर लोगों ने चार गाड़ियों में लदकर आए लोगों का हाथ हिला-हिलाकर स्वागत किया। बड़े पापा गदगद थे और दोनों बुआ की आंखों के कोनों पर आंसू टंगे हुए थे। शाश्वती को तो गांव का कुछ भी याद नहीं था, लेकिन बाकी भाई-बहन अपने बचपन के कई किस्से कहते-सुनते हंसते-हंसते लोट-पोट हुए जा रहे थे।
पुण्यतिथि की एक रात पहले पूरा परिवार आंगन में बैठा। बड़ों के लिए कुर्सियां डाल दी गई और छोटों ने चारपाईयों पर जगह बना ली। सबने जमकर उस रात आजी को याद किया। आजी से बाईस साल पहले गुज़रे बाबा की भी चर्चा हुई बीच-बीच में। पहला प्रस्ताव बड़े पापा की ओर से आया, ''लड़कियों के लिए स्कूल खोलते हैं अम्मा के नाम पर। इतना बड़ा घर है। मैं और तुम तो आकर रहेंगे नहीं यहां। भलाई का काम भी हो जाएगा, संपत्ति की रखवाली भी हो जाएगी। कोई भरोसेमंद आदमी रख लेंगे देखभाल के लिए।''
पापा अस्पताल के पक्ष में थे। ''एक बार हमसे अम्मा ने कहा था दो-चार साल पहले, बबुआ डॉक्टर नइखे अगल-बगल कौनो। बड़ी दिक्कत होखेला। कबो कबो मन ठीक ना लागेला त बुझाला ना केकरा से देखाईं, कहां जाईं। वो तो ख़ैर अम्मा चाहती थीं मैं ही आ जाया करूं हफ्ते-दो हफ्ते में। ऐसा मुमकिन कैसे होता, आप ही बताईए भैया। वैसे अस्पताल ठीक रहेगा, क्यों बड़का पाहुन?''
बड़े फूफाजी भी पापा से सहमत थे, ''जिसके दो बेटे डॉक्टर, दो दामाद डॉक्टर, उसके नाम पर तो अस्पताल ही खुलना चाहिए भाई।''
बगल से आए गोतिया के रवीन्द्र काका ने भी सुर में सुर मिलाया, ''बड़ी सहनशील और महान महिला थीं बड़की भौजी। हम तो साठ साल से देख रहे हैं उनको। बच्चों को पढ़ा-लिखा कर कहां से कहां पहुंचा दिया और खुद गांव में ही रहीं, अकेली। उनका नाम तो अमर होना ही चाहिए। तुमलोग मिलकर अस्पताल ही खोलो - पूर्णेश्वरी देवी मेमोरियल अस्पताल।''
ममा ने कहा, ''अम्मा की आत्मा को बड़ी शांति मिलती होगी आज। उनका पूरा परिवार उनके आंगन में बैठकर उनके गुणों का बखान कर रहा है।''
आजी के गुणों का बखान करते-करते रात गुज़री, सुबह हुई। आजी की बरसी का पूरा कार्यक्रम ठीक उसी तरह संपन्न हुआ जैसा सभी चाहते थे। भजन-कीर्तन हुआ, भोज हुआ, दरिद्रनारायण को जमकर खिलाया गया, शुद्ध घी में बने लड्डू आस-पास के गांवों में बांटे गए। चीफ मिनिस्टर भी आए थोड़ी देर के लिए। पत्रकारों की मंडली के सामने अस्पताल बनाए जाने की घोषणा करवा दी पापा ने। चीफ मिनिस्टर जाते-जाते एक नया शिगूफा छोड़ गए थे, ममा को यहीं की विधानसभा सीट के लिए टिकट दे दिया जाए।
बरसी की रात सभी बेहद खुश थे। पापा-ममा को मुंहमांगा वरदान मिला था। बड़े पापा बरसी के इतने शानदार आयोजन और अस्पताल के नाम खूब सारा चंदा देकर खुद को मातृऋण से उऋण समझ रहे थे। दोनों बुआ ज़िन्दगी भर विदेश में रहकर अपने बच्चों को फैमिली वैल्युज़ का जो पाठ पढ़ाती आ रही थीं, उसके साक्षात दर्शन भी करा दिए थे उन्हें।
लेकिन दालान में टंगी आजी की मुस्कुराती तस्वीर के पीछे की सालों लंबी तन्हाई किसी को नज़र नहीं आई थी।
2 टिप्पणियां:
very very true....
kahun to ekdam satik...
lekin dikkat yah hai ki is dard ko samjhne wake ab bache kitne hain ab hamare-samay aur desh mein.....
बहुत जबरदस्त!!
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