मंगलवार, 14 जुलाई 2015

अटकी हुई फ़िल्म स्क्रिप्ट - डे टू

हमें इन्सटेंट ग्रै टिफिकेशन की आदत पड़ी हुई है। डेडलाइन माथे पर नाचने लगे तो किसी न किसी तरह कुछ लिख दिया। किसी तरह ख़्यालों को एक स्ट्रक्चर दिया, और हो गई कहानियाँ, कविताएँ, लेख, विचार, कॉलम, ब्लॉग, वगैरह वगैरह तैयार। जितनी तेज़ी से लिख लिया, उतनी ही तेज़ी से उस लिखे हुए पर प्रतिक्रियाएँ भी हासिल हो गईं। लिखना फेसबुक स्टेटस मेसेज पर लाइक की कामना से आगे जाता ही नहीं कमबख़्त। लिखना बस इसलिए, क्योंकि जल्दी से जल्दी कोई बात कह देनी है किसी तरह।

जब हम लॉन्ग फॉर्मै ट में लिखने बैठते हैं तो यही सबसे बड़ी समस्या होती है। काम जब तक पूरा नहीं हो जाता, तब तक किसी को दिखाना संभव नहीं होता। हमारी तरफ से पूरा हो भी गया तो भी उसमें स्ट्रक्चर के बिखरे हुए होने का डर सताता रहता है। फेसबुक के स्टेटस मेसेज की तरह उसको हाथ के हाथ लाइक नहीं मिलते।

लॉन्ग फॉर्मैट भीतर ही भीतर हमें तन्हां करता रहता है, दुनिया से काटता रहता है, ख़ामोश रहने पर मजबूर करता रहता है। लॉन्ग फॉर्मैट सीखाता है कि हर छोटी-छोटी बात कहकर और उस पर प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार कर अपनी ऊर्जा मत ज़ाया करो। ये ऊर्जा बचाए रखो, क्योंकि अभी कई और ड्राफ्ट्स लिखे जाने हैं। अभी बहुत सारा काम और होना है।

कल मैंने भाई को मॉर्निंग पेज या डायरी लिखने की सलाह दी तो उसने बहुत अच्छी एक बात कही। ज़रूरी नहीं कि जो लॉन्गहैंड लिखता हो, या शब्दों का खेल समझता हो, उसका थॉट प्रॉसेस बहुत साफ-सुथरा ही होगा। हम कई बार अच्छा लिखने की बदगुमानी में verbose होते चले जाते हैं। सटीक, साफ-सुथरे ख्यालों का पता नहीं होता, बस शब्दों को सजाने-सँवारने के चक्कर में लगे रहते हैं। कई बार शॉर्टहैंड लिखना टू-द-प्वाइंट सोचने के लिए ज़रूरी होता है। और अपनी बात अच्छी तरह कम्युनिकेट करने के लिए भी। मुझे अचानक उसकी बात में बहुत दम नज़र आया। वाकई ज़्यादा लिखने के चक्कर में हम ज़्यादा शब्द ज़ाया भी करते हैं, और जो कहना होता है वो कह नहीं बाते। बीटिंग द बुश मुहावरा किसी राईटर के कॉन्टेक्स्ट में ही पैदा किया गया होगा।

ख़ैर, लॉन्गहैंड फॉर्मैट लिखने की एक समस्या ये भी है कि ज़्यादा-ज़्यादा लिखा जाता है लेकिन काम का बहुत कम निकल पाता है। स्क्रिप्ट लिखते हुए भी ठीक यही हो रहा है। एक सीन इतना लंबा और बोरिंग हो जाता है कि ख़ुद ही कोफ़्त होने लगती है। वही बात इशारों में, या किसी एक छोटे से एक्शन के ज़रिए भी तो कही जा सकती है। कहानीकार होने और स्क्रिप्टराईटर होने में यही अंतर है।

मैं जिस चीज़ से परेशान हूं उसे अपने लर्निंग प्रोसेस की सीढ़ियां क्यों नहीं मान लेती? ऐसे कितने राईटर होंगे जिन्हें एक साथ कई किस्म की चीज़ें कई तरह के फॉर्मैट में लिखने का मौका मिल रहा होगा? मैं ख़ुशनसीब हूं कि मैं एक ही दिन में किसी बड़े उपन्यासकार की रचना एडिट कर रही होती हूँ, वेब के लिए कॉन्टेन्ट लिख रही होती हूँ, किसी किताब का अनुवाद कर रही होती हूं, किसी टीवी चैनल के प्रोमो के लिए स्क्रिप्ट लिख रही होती हूं, किसी अंग्रेज़ी वेबसाइट के लिए अगले कॉलम के आईडिया सोच रही होती हूँ और उसके साथ-साथ अपने लॉन्ग फॉर्मैट के साथ संघर्ष भी कर रही होती हूँ। हर बार लिखना - ख़राब या अच्छा, शॉर्ट या लॉन्ग, संभला हुआ या बिखरा हुआ, अपने लेखन को मांजने का ज़रिया क्यों नहीं हो सकता? लिखने के साथ इतना सारा रोमांस जोड़ देने की इजाज़त मुझे है क्या?

और अगर है, तो उस रोमांस को बचाए रखना भी मेरा ही काम है। लिखना अब मेरे लिए रोमांस रहा नहीं, वो कई सालों की शादी हो गई है जो बस है - दिन-रात, आजू-बाजू, भीतर-बाहर.... वजूद का एक अकाट्य हिस्सा, जिसके लिए लॉयल्टी में ही चैन है। अपनी तमाम उलझनों और कोफ़्त के बावजूद। उस रिश्ते में कुछ एक्साइटिंग करने की बेमानी और नाजायज़ ख़्वाहिश के बावजूद। इसलिए क्योंकि लॉयल्टी में सुख है। जिन्होंने लेखन को रोमांस बनाकर उसे बचाए रखा, जिलाए रखा और उसमें ज़िंग डालते रहे, वो ऊबते रहे, डूबते रहे। मेरे लिए लेखन शादी ही ठीक। टेढ़ा है, मगर मेरा है। बोरिंग है, लेकिन फिर भी मेरा है। एकरस है, फिर भी मेरा है। रुलाता है, थकाता है, मगर फिर भी मेरा है। इसलिए हर सुबह और शाम इस शादी के लिए ख़ुद को दुरुस्त बनाए रखना है, मेहनत करते रहनी है। जो कई सालों से शादी-शुदा है, वो जानता है कि एक रिश्ते को सुकूनदायक बनाए रखना कोई हँसी-ठठा नहीं। शादी लाइफलॉन्ग है। लिखना कई जन्मों के आर-पार से होते हुए हर जन्म में पाल लिया गया वही लाइफलॉन्ग फितूर है।

इसलिए निजात है नहीं अनु सिंह। किसी भी तरह से नहीं। रोकर-धोकर, तमाम सारी शिकायतें करके भी बस ये समझ लो कि लिखना रोमांस नहीं है। लिखना जीने की ज़रूरत है। इसलिए खाली पन्ने निहारते रहने और लिखने को रोमांटिसाइज़ करते रहने से अच्छा है कि हर रोज़ ख़राब या अच्छा, जैसा भी हो लिखा जाए।

आज की डेडलाइन क्या है, देखो तो ज़रा।

आज की चुनौतियां? ब्रिंग इट ऑन, वर्ल्ड!

1 टिप्पणी:

P S ने कहा…

अनु आप ने को पूरी किताब लिखी है, फिर से स्क्रिप्ट क्या बला है ...

वैसे लंबा टेक्स्ट लिखने का दर्द मुझे भी समझ में आया कल। (मैंने मास कॉम या या साहित्य से बीए एमए किया था नहीं; बिसनेस मैंनेजमेंट के साथ इंग्लिश लिटरेचर पढ़ी थी।) शॉर्ट स्टोरी ५००-६०० शब्द की या कविता लिखने में परेशानी नहीं हुई कभी; पर एक कहानी लिखने में, ५०००+ शब्द, मुझे आटे-दाल का भाव समझ में आ गया।
आपके लिए अप्लॉज़ ।