मैं उसकी बात पर हँस पड़ी थी, और भाई को फ़ोन किया था कि देखो, मेरे पेट का जाया मेरा ही छोटा टास्कमास्टर हो गया है। लेकिन फिर उसकी बात पर बड़ी देर तक सोचती रही। बच्चे हमारी कमज़ोरियों, हमारे डर और हमारी फ़ितरत को हमसे बेहतर जानते हैं। आदित जानता है कि मैं इन दिनों से किस चीज़ से भाग रही हूं।
मैं इन दिनों लिखने से भाग रही हूँ (और मेरी ही डायरी - मेरे ब्लॉग से नदारद सफ़हे इस बात का सबूत हैं)। मैंने इस साल इतना ही कम लिखा है कि ब्लॉग पोस्ट्स पचास का आंकड़ा भी नहीं छू पाईं। जो टेढ़ी-मेढ़ी बेतुकी कविताएं रचकर उनकी कमज़ोर बुनावट पर भी जो थोड़ी-बहुत वाह-वाहवाहियां मिल जाया करती थीं, वो बंद हो गई हैं। सात सालों में लिखी कुल बारह कहानियों को जोड़-तोड़कर जिस एक किताब (नीला स्कार्फ़) को लिख देने की बेईमानी मैंने की, उसकी कमउम्र शोहरत के दिन भी लद गए।
अभी तो और कहानियां सुनाई जानी थीं। अभी तो कई फ़साने बाकी थे। फिर उनका क्या हुआ?
बारह कहानियां लिखकर यूं तो कोई रचनाकार बन नहीं जाता, लेकिन अगर ख़ुद को सिर्फ़ कम्युनिकेटर - कहानियां सुना देने का एक ज़रिया भी मान लिया जाए - जो उसके लिए छह महीने तो क्या, छह साल की पहचान भी बहुत कम होती है।
शायर सोते-जागते, उठते-बैठते, चलते-फिरते काफ़िया मिला रहा होता है। नसर में अपनी बात कहने का अदब रखनेवालों के लिए भी तो जुनून इसी टक्कर का होना चाहिए।
कैसे कहूं आदित को कि जुनून तो है, हिम्मत नहीं। हर कहानी के साथ लगता है कि आंख पर पड़ा पर्दा हट गया। कोई झिल्ली थी जो फट गई। मन की आंखों के मोतियाबिंद का हर रोज़ इलाज चलता रहता है, और मन की आंखों की हर जिराही के बाद हर बार जो दुनिया नज़र आती है वो तकलीफ़ ही देती है। जी कहता है कि हम अंधे ही अच्छे थे।
जो दिखने लगता है, उन कहानियों पर कहानियां चढ़ती जाती हैं। किरदारों के दर्द इस तरह काटते हैं कि अपने पैर की बिवाई हों। दुनिया बेमानी और बेमुरव्वत लगती है। हर इंसान बेचैन, हर रूह बेकल। सबकी इतनी इनसेक्योरिटी, इतने डर कि लगता है, जान बदन छोड़ती होगी तभी निडर होती होगी। वरना हम सबके कांधों पर तो सिर्फ़ खो देने का डर है - अपनी ताक़त, अपनी शोहरत, अपना परिवार, अपने ख़्वाब, अपना प्यार, अपनी चाहत, अपनी जान खो देने का डर। हम हैं क्यो सिवाय डर के पुलिंदों के? और तो और, ख़ुदा न ख़ास्ता, किसी कहानी का सिरा उसके मुक़म्मल अंजाम तक न पहुंचा पाए, उसे उसके डर से आज़ाद न कर पाए तो उसकी बेचैनी अलग। नहले पर दहला तो ये ग़म होता है कि किरदार अपना होता भी नहीं, लेकिन फिर भी अपना ही कुछ घुटता रहता है हर कहानी में।
आदित की मां हुनरमंद है या नहीं, इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है? साबित किसे करना है और किसकी ख़ातिर? आदित की मां लिखे-पढ़े के दम पर जिस रोज़गार की तलाश में भटकती फिरती है उसका हासिल क्या है, ये भी आनेवाली नस्लें ही तय करेंगी। लेकिन आदित की मां में इंसानी जज़्बातों (इंसानी ही क्यों, पाशविक और हैवानी भी क्यों नहीं?) से आंख मिलाने की कितनी ताक़त थी, ये बात आदित तय करेगा। आदित की मां हर कहानी के साथ इंसानी रिश्तों की परतें खोलने की हिम्मत रखती थी या नहीं, ये भी आदित तय करेगा।
जो कहानियों में आएगा, वो जख़्म की तरह भर दिया जाएगा। जो इन किरदारों की ज़िन्दगी में नहीं समा पाएगा, मन के किसी अंधेरे आवर्ती खाते में जमा किया जाता रहेगा।
कहानियां लिखने वाले दौर और बेहोशी और बेख़ुदी के उन दौरों का इंतज़ार है। तब तक किसी और के लिखे का तर्जुमा ही कर लेने दो। चांद निगलने की ताक़त फ़िलहाल मुझमें नहीं, इसलिए 'आई स्वालोड द मून' का अनुवाद करने दो। अभी हिम्मत जुटा रही हूं। डर और डर से क्षणभंगुर आज़ादी की कहानियां लिखने में अभी थोड़ा और वक़्त है।
और सुनो आदित कि वो चांद निगलने वाला शायर क्या कहता है -
"... मगर एक बात को है, नज़्म हो या अफ़साना, उन से इजाज़ नहीं होता। वह आह भी है, चीख भी, दुहाई भी। मगर इंसानी दर्दों का इलाज नहीं है। वह सिर्फ़ इंसानी दर्दों को ममिया के रख देते हैं, ताकि आने वाली सदियों के लिए सनद रहे।"
7 टिप्पणियां:
आदित की माँ को ढेरों शुभकामनायें :)
oh ..behtarin parastuti
बहुत अच्छा और आत्मीय लेख है. आदित इसी तरह आपको उत्साहित करते रहें. नहीं तो हम अनुवादकों का अपना लेखन टलता चला जाता है.
जो दर्द आदित की मां का है, वह सिरजने के दर्द से बचने की एक टेक है। यही दर्द ईशान के पापा को भी है...आइडियों का खजाना है...लिखने बैठो तो सिफ़र...। हर कहानी का हर किरदार आपके वजूद का ही तो हिस्सा है...उसका दर्द झेलो...तो झेला न जाए। बहरहाल, ईशान आदित की तरह उलाहना देने के मूड में नहीं आया, उसको अभी इसी बात का सुख है कि पापा कुछ तो लिख रहे हैं, अनुवाद ही सही। वरना, अपने स्तर पर कहूं तो अनुवाद करके, जीवन भी किसी मौलिक जीवन का अनुवाद ही लगने लगता है।
किसी को भी कुछ भी साबित करने की ज़रूरत नहीं।
जब गला इस हद तक ख़ुश्क़ हो जाए कि जां निकलने लगे और पानी की बूँद भी मयस्सर न हो, तब ये चाँद ख़ुद ब ख़ुद गले में उतर आएगा, अपनी तरावट के साथ।
तबतक सिर्फ़ इंतज़ार....
तुमको पढ़कर किसी के कहने पर लिख रहा एक लेख अधूरा छोड़ दिया। हम सब के भीतर कुछ टभकता रहता है भीतर- उसे समय पर लाना पड़ता है, कभी समय बीत जाता है, कभी हम बीत जाते हैं (बीतने वाली बात कुंवरनारायण की कविता से है)। बहरहाल, आदित को पता है कि उसकी मां लिखने के लिए बनी है। बहुत अच्छी टिप्पणी अनु।
पात्र लिखा लेंगे अपनी-अपनी कहानी। बिना दवाब डाले, बिना चीखे-चिल्लाये, बिना धमकाए। सिर्फ सामने आकर, आँख के आगे से गुजरकर। एक नज़र भर देखना ही काफी है ...
एक टिप्पणी भेजें