1
जितनी बार हम जी रहे होते हैं
दुःख
क्षोभ, व्यथा, हानि
बिछोह, संताप, प्रताड़ना, ग्लानि
पीड़ा की ये आरी
काट रही होती है
कई पूर्वजनमों के जंजाल।
जितनी बार
हम होते हैं
किसी के प्रेम में
उतनी ही बार
कस रहे होते हैं
अपनी गर्दन के चारों ओर
नारियल की रस्सियां
और तैयार कर रहे होते हैं
फिर से एक दुर्गम जाल।
प्रेम के जाल
और पीड़ा की आरी के बीच
बचा रह जाता है
पल-पल झरता शरीर
जिसके मोम के न होने का
रहता है अफ़सोस
लगातार।
जब हम काट रहे होते हैं
अपने हिस्से के करम
और बुन रहे होते हैं
कई नए कष्टसाध्य जाल
अगली ज़िन्दगी के लिए
दर्ज करा रहे होते हैं
एक ही दरख्वास्त -
प्रेम।
2
जो कहता नहीं है
अपनी जुबां से
उसकी आँखों में
सबसे गहरी होती है बेचैनी
जो नहीं जानता हाथ मिलाना
खींचकर गले लगाओ तो
सबसे ऊँची आवाज़ में
रोया भी वही करता है अक्सर
जिसके होठों पर
कम होती हैं शिकायतें
चखो तो सबसे उदास
बोसे उसी के होते हैं
जिसके कंधे लगते हैं
सबसे मज़बूत और मुकम्मल
उसके सीने से कभी नहीं उतरता
इस बेगैरत दुनिया का बोझ
दरअसल जो दिखता है
वो होता नहीं है
जो नहीं दिखता
वही हुआ करता है
सबसे ईमानदार सच।
3
ख्वाहिशों की तितलियों को
आम के मंजर,
सेमल के फूल,
अरहर के सिट्टे,
बेल की लदी डालियां,
नशे में झूमता महुआ पेड़,
जंगली गुलाब रास नहीं आते।
ख्वाहिशों की इन तितलियों को
बेसबब बेकरारियों के अंगारों पर
मंडराने का नया चस्का लगा है।
ख्वाहिशों की तितलियों के
इस सुसाईड अटेम्पट की
वे ख़ुद ज़िम्मेदार करार दी जाएँ!
4
मत पूछ कि
इस पागल शहर में
रहती कहाँ हूँ मैं
कॉफ़ी के झूठे प्यालों में हूँ
व्हाट्सएप्प पर कुछ सवालों में हूँ
तुम्हारे गुसल की बेसिन पर
उस रात छोड़ी थी जो अपनी
मैगनोलिया क्रीम, वहाँ हूँ मैं।
कंघी के टूटे बालों में हूँ
अलमारी की दराजों में हूँ
छोटी सी इक रसोई के कोने
सिल बट्टे की जगह ले गयी जो
मिक्सी, वहाँ हूँ मैं।
अस्पतालों के नंबर में हूँ
कोम्बिफ्लाम के पत्ते में हूँ
तपते हुए माथों पर जो
लगती, बदलती, गीली हुयी है
पट्टी, वहाँ हूँ मैं।
गमले में हूँ कि बाड़ों में हूँ
एसी के नकली जाड़ों में हूँ
गुल्लक में हूँ कि लॉकर में हूँ
सच में हूँ, फसानों में हूँ
एफ़म पर चलते गानों में हूँ
गाडी में भी हूँ, रिक्शे पे भी हूँ
घर को बनाए दफ्तर में भी हूँ
बिखरी हुयी हूँ, बहकी हुयी हूँ
फिर क्या बताऊँ,
रहती कहाँ हूँ मै
5
कैसे करें शुक्रगुजारी ऐ खुदा
दिया तो इतना दिया
कि बक्सों, सन्दूकों,
काग़ज़ के गत्तों के डब्बे
भी कम पड़ते हैं।
सुनो, कि कभी लेना ही वापस मुझसे
तो सबसे पहले
लम्हों, लोगों, दर-ओ-दीवारों से
डूबकर इश्क करने की
ये बेजां फितरत ले लेना।
तुम भी बख्श दिए जाओगे
और मेरी भी इस छोटी सी दुनिया को
मिल जाएगा आराम!
6
झरती डाल
फुदकती चिड़िया
कड़वे नीम
पर आये फूल
दरकती ज़मीन
फूटा अंकुर
दहकता माथा
शबनमी बोसा
कराहती पीठ
गोद में बच्चा
जलती आँखें
बरसते बादल
सुलगता चूल्हा
ठंडी शिकंजी
छूटती सांसें
थामती उम्मीद।
7
नाज़ुक था
डाल से बिछड़ गया
कचनार था
था अलहदा
भीड़ से अलग हुआ
काला मेमना
सख्त था
चोरी के गुल्लक पर
मम्मी का थप्पड़ था
था उलझा हुआ
कुर्सी बुनता
नया-सा कारीगर कोई
गर्म था, सर्द था
खिला था, ज़र्द था
नहीं था ख्वाब वो
कई रातों का सिरदर्द था
वो क्या था, कहती
सब कह देती
मगर तुम्हारी मौजूदगी में
हमेशा
और अदना हो जाती हैं
मेरी सारी कवितायें!
8
मरती रहती हूँ
फिर भी रह जाते हैं काम
मैं कब, कहाँ
किस मौन में
पुकारूं तुम्हारा नाम।
9
अगर खींच सकती
तो ले आती तस्वीरें
कानों और इअर प्लग्स के बीच
तिरकिट मचाती हवाओं की
नाईट शिफ्ट के बाद
अपने झुरमुट में सोने चली गयी
रात की रानी की
बैसाख को ठेंगा दिखाकर
फलते फूलते लैवेंडर की
दहकते इश्क का चोगा पहनते
गुल्मोहर, अमलतास, कचनार की
ॐ, प्राणायाम में ग़म ग़लत करती
नाराज़, हैरान, दयनीय दुनिया की
लेकिन जान, मैं फोटोग्राफर नहीं
और तुम फुर्सतज़दा नहीं
इसलिए आज भी टहलकर
लौट गयी हूँ पार्क से।
12 टिप्पणियां:
ब्लॉग बुलेटिन आज की बुलेटिन, थम गया हुल्लड़ का हुल्लड़ - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
सुंदर रचनाऐं ।
बहुत ही प्रभावी ... बहुत कुछ कहने को बैचैन लेखनी ... अन्दर तक उतरती सब रचनाएं ...
सभी रचनाएँ बहुत सुन्दर
बहुत सुन्दर ।
वाह! चिरस्मरणीय पंक्तियां।
बहुत सुन्दर
खुबसूरत अल्फाजों में पिरोये जज़्बात....शानदार |
beautiful...............
all of them !!
anulata
कैसे करें शुक्रगुजारी ऐ खुदा
दिया तो इतना दिया
कि बक्सों, सन्दूकों,
काग़ज़ के गत्तों के डब्बे
भी कम पड़ते हैं।
सुनो, कि कभी लेना ही वापस मुझसे
तो सबसे पहले
लम्हों, लोगों, दर-ओ-दीवारों से
डूबकर इश्क करने की
ये बेजां फितरत ले लेना।
तुम भी बख्श दिए जाओगे
और मेरी भी इस छोटी सी दुनिया को
मिल जाएगा आराम!
बहुत बढ़िया
मर्मस्पर्शी रचनाएँ ..
एक टिप्पणी भेजें