गर्मी की छुट्टी
शुरू होते न होते हम गांव जाने की तैयारी करने लगते थे। हम रांची में रहते थे,
बाबा-दादी के पास। पढ़ाई भी वहीं हुई और गांव था सीवान में, रांची से कुछ ५००
किलोमीटर दूर। गांव यानी पैतृक गांव। गांव यानी ननिहाल भी। ये और बात है कि हम वो
चौथी पीढ़ी थे जो शहर में रह रहे थे (हमारा परदादा काम और रोज़ी की तलाश में पचास
के दशक में ही कोलकाता जा चुके थे।) बावजूद इसके गांव से नाता नहीं छूटा। ये मानी
हुई बात थी कि रिटायर होने के बाद हर पीढ़ी गांव ही आकर रहेगी – बड़े बाबा, बाबा,
पापा, और फिर हम।
गांव तब सही मायने
में गांव हुआ करता था। आम और लीची के बगीचे, खीरे और तरबूज के खेत, दाहा नदी का
पानी और उसपर बना पुल, सुबह-सुबह दूर चक्की की आती आवाज़, तांगा, दुआर पर बंधे बैल
और पशु-मवेशी, नेवले, सांप और मोर-मोरनियों वाला आंगन। तब सुबह का नाश्ता
दही-चूड़ा होता, दिन का खाना दाल-भात और आलू-परवल की सब्ज़ी के साथ कच्चे आम की
चटनी या फिर सतुआ और शाम को भुंजा या फिर गुड़-चना। गांव तब गांव ही होता था कि जब
हम नदी से नहाकर घर लौटते तो उपधाईन काकी खाना बनाते-बनाते चार ठो उपदेश झाड़ देती
– बबुनी, केस मुल्तानी माटी से धोअबू तो ढील ना होई (बाल मुल्तानी मिट्टी से धोने
से जूं नहीं होगा) या फिर दही-बेसन के अबटन (उबटन) से रंग चिकन (साफ) होई। उपधाईन
काकी को बोलने की आदत थी, हमको सुनकर अनसुना कर देने की। हम भर दुपहरिया जेठ की
धूप में एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर बंदरों की तरह फांदते रहते। इस बात का पुख़्ता
यकीन था कि कच्चा प्याज़ सतुआ के साथ खाए हैं, लू लगने का तो सवाल ही नहीं उठता।
गांव तब गांव ही था।
रात होते न होते आंगन में खटिया डालकर भर रात ध्रुव तारा खोजते थे। तारे देखते हुए
मन भर जाता था तो छोटी ईया कहानियां सुनाती थी – सात भाईयों की इकलौती बहन वाली,
तोते में अपनी जान संभालकर रखने वाले भकऊआ (राक्षस) की, सिंदूर के पेड़ के नीचे
अपने पति के विछोह में गीत गाती खिलमनिया की। कहानियों के मुकाबले गर्मी की रातें
छोटी पड़तीं।
गांव तब गांव था कि
टोला में शादी-बियाह होता तो लगता कि जैसे आंगन में बारात आई है। गाजा-खजुली,
लड्डू-नमकीन के एक नाश्ते के डिब्बे के लिए कैसी-कैसी मशक्कत करनी पड़ती! तब घरातियों को नाश्ता थोड़े न मिलता था? गीत
गाने वाली लड़कियां इस्पेसल थीं – एक्पेक्सन (एक्सेपश्न – अपवाद), सुनीता फुआ ने
बताया था। उसी बहाने राम-जानकी बियाह के दो-चार गीत हम भी सीख लिए थे।
गांव तब गांव ही था,
कसम से। मम्मी लोग गांव आने के चार किलोमीटर पहले से ही घूंघट काढ़ लेती थी। याद
है हमको कि जून के महीने में किसी शादी में मटकोर के लिए जाना था और घर की सारी
बहुओं ने बनारसी चादरें ओढ़ रखी थीं, घूंघट निकालने के लिए। तब बेटियों को दसवीं
के बाद स्कूल जाने की इजाज़त नहीं थी, आस-पास कोई इंटर कॉलेज नहीं था इसलिए। और
बेटियां पढ़कर करती भी क्या? पढ़ने का सौभाग्य सिर्फ हम जैसी शहरी लड़कियों को
मिला – फ्रॉक और जीन्स पहनकर साइकिल चलाने का भी।
गांव बदल गया है, इतना कि पहचान में नहीं आता। अब बहुएं पर्दा नहीं करतीं (शुक्र है!), बेटियां नज़दीक के गांवों में स्पोकेन इंग्लिश क्लास करने जाती हैं। जीन्स पहनना और साइकिल चलाना आम बात मानी जाती है। लेकिन दुआर पर पशु-पखेरू नहीं रहते। आंगन मिट्टी का नहीं रहा, सीमेंट का हो गया है। नदी का पानी सूख गया है। पास के चीनी मिल का सारा कचरा उसी में आता है, इसलिए। खेत बिक गए। बगीचे कट गए। अब रिटायरमेंट के बाद गांव जाकर बसने का इरादा भी कोई नहीं रखता। इतनी मेहनत कौन करे? शहरों में ज़िन्दगी आसान ठहरी। सच है कि तरक्की – चाहे परिवार की हो या पूरे समाज की – किसी न किसी रूप में कीमत वसूलती है। एक परिवार के रूप में हमारी तरक्की ने हमसे हमारा गांव छीन लिया है।
(www.gaonconnection.com ke 25th edition ka column "Man ki baat" copied and pasted)
11 टिप्पणियां:
छूटा हुआ, सिर्फ छूटा नहीं रह जाता.
ये तरक्की कहां है, जिसमें जड़ों को खड़ी करनेवाली धरती यानि गांव समाप्त हो रहे हैं, हो चुके हैं।
गाँव नहीं रहे - विकास का विभत्स रूपी कसबे बन चुके हैं .. गाँव नहीं रहे - गाँव की बातें रह गयी हैं जो सन १९६५-७५ के बीच जन्मे बताते रहते हैं और उसी में रमे रहते हैं... अब उनको भी गाँव में कोई नहीं पूछता सो रिटार्यड होने के बाद अब कोई वापिस वहाँ सेटल नहीं होना चाहता.
हृदयस्पर्शी भाव और हकीक़त भी ...!!बहुत सुन्दर लिखा है ...!!
विकास की सच में भारी क़ीमत चुकायी है, पाने से कहीं अधिक।
इसे तरक्की नहीं कहते...
बनावटी दुनिया में जीने के आदी हो गये हैं हम सब !
बहुत अच्छा लिखा है। सच है अब गांव नहीं रहे।
अच्छी रचना.बहुत बेहतरीन
थोड़े अनलकी रहे, कभी ऐसा गाँव नहीं देख पाए | ये सब कहानियों में ही पढ़ा है | हाँ, नदी में उचक उचक के नहाने का मन है | राफ्टिंग पर गए थे गंगा में कूद गए थे , मजा आया था |
जब ऑफिस में होता हूँ और बाहर गिरती बारिश देखता हूँ तो बस बहार भाग जाने का मन करता है | यही एक काम खुल के किया था छोटे पर |
बाकी तो कंसन्ट्रेटेड एच तू एस ओ फोर ने पूरा बचपन जला डाला !!!!!
विकास की भी कीमत चुकानी पड़ती है।
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