उनसे पहली बार मिलती हूं तो ज़ेहन में पहला ख़्याल यही आता है कि उम्र चेहरे पर अपना करतब दिखाए तो कुछ ऐसे ही, कि झुर्रियों से भी टपके सौम्यता। नए शहर में, नई जगह पर, अजनबी घर में खड़े होने की घबराहट उन्हें देखते ही काफ़ूर हो जाती है। यूं भी मैं अपने दोस्तों से पहले उनकी मांओं के साथ ज्यादा आसानी से जुड़ जाने में माहिर हूं, बचपन से। आंटी को देखते ही लगा है, यहां रहना मुश्किल नहीं होगा।
सफ़र की थकान है, एक बार फिर बच्चों को छोड़ कर आने का बोझ है और एक ऐसे जुनून में शामिल हो जाने की ज़िम्मेदारी है जिसकी पहली शर्त पागलपन होती है। सामान रखकर आंटी के साथ बैठी हूं और बिना किसी भूमिका के ही मैं पहला सवाल पूछती हूं, "जुड़वां बच्चों के साथ कैसे किया इतना सबकुछ?" आंटी मुस्कुराते हुए अपने ख़ास लखनवी अंदाज़ में कहती हैं, "अरे बड़ा मुश्किल था बेटा, तुम्हें क्या बताएं हम।" ये सुनते ही सोचती हूं, एक ट्विन मदर्स क्लब बनाया जाना चाहिए कि हम सब मांओं का ये पेटेंट जुमला है शायद।
आंटी के बारे में बता दूं। नाम निर्मला (शुक्ला) मिश्र, लखनऊ में पली-बढ़ीं, यहीं से ग्रैजुएशन, एमए और बीएड किया (और ये उस ज़माने की बात है जब देश में स्त्री-शिक्षा का अलख जगाया जाना चंद बड़े सामाजिक सुधारों की कोशिशों के परे कुछ भी नहीं था)। शादी हुई तो नॉर्थ अमेरिका में देश का नाम ऊंचा कर आए एक जिऑलोजिस्ट शिव बालक मिश्र से। लेकिन एक फितूरी को दूसरा फ़ितूरी मिल जाया करता है और ऊपरवाला भी ऐसी ही जोड़ियां बनाने में माहिर हो शायद। तो बस, अंकल कनाडा में करोड़ों साल पुराने फॉसिल पर शोध करते-करते अचानक देश लौट आए और पहुंच गए अपने गांव, जहां वो एक स्कूल खोलना चाहते थे।
सपने देखना एक बात है, सपने को सच बनाने का जुनून रखना दूसरी बात और उसको पूरा करने की जद्दोज़ेहद में जुट जाना सर्वोपरि है। उससे भी अहम है अपने जीवन-साथी के सपने में कुछ इसी तरह यकीन करना जैसे ये दुनिया का पहला और आख़िरी सच हो। शहर में पली-बढ़ी आंटी शादी के बाद गांव जा पहुंची। मिट्टी के घर में घूंघट के पीछे से उसी सपने को खुली आंखों से देखा जो उनके पति देख रहे थे और एक दिन उनके साथ स्कूल को चलाने के लिए घर की ड्योढ़ी और गांव की पगडंडियां पार कर वहीं जा खड़ी हुईं जहां सपनों को मुकम्मल शक्ल दिया जाना था, अपनी शादी के ठीक डेढ़ महीने बाद - पहली जुलाई १९७२ को। मिट्टी की दीवारों और कच्ची-सी छत वाला एक कमरा था जिसे स्कूल बनाया जाना था। यहीं उनके साथ दहेज़ में आए सोफे और कुर्सियां डाल दी गईं थीं। स्कूल में कुछ सत्तर-अस्सी बच्चे थे, जिन्हें हाई स्कूल तक की शिक्षा दी जानी थी। साथ में चार टीचर्स थे, वो भी गांव के।
फिर शुरू हुआ शिक्षा के प्रचार-प्रसार का वो सिलसिला, जो अब तक जारी है। सुनने में आसान लगता है, दंतकथा हो गया ना इसलिए। लेकिन हर दिन एक चुनौती रही होगी, हर लम्हा एक संघर्ष। तब, जब आप मौसम की मार सहते हुए, कभी लू के थपेड़ों से उलझते हुए, कभी शीतलहरी बर्दाश्त करते हुए, कभी सांप-बिच्छुओं से ख़ुद को बचाते हुए हर रोज़ स्कूल पहुंचते हों - वो भी ऐसे बच्चों को पढ़ाने के लिए जिनमें से कुछ को स्कूल के बाद भैंस चरानी होती होगी, किसी को हल चलाना होता होगा और किसी को बर्तन मांजना होता होगा।
ये पागलपन क्यों था? आसानियां भी तो चुनीं जा सकती थीं। क्या ज़रूरत थी कि आठ महीने का जुड़वां गर्भ लिए हुए कभी बारिश, कभी फिसलन से खुद को बचाते हुए स्कूल पहुंचा जाए? खेत की पगडंडी पर उतना बड़ा पेट लिए औंधे मुंह गिरी होंगी तो उन्हें किसने बचाया होगा? उनके अच्छे कर्मों ने, शायद। क्या ज़रूरत थी कि बच्चों की पैदाईश के तुरंत बाद उन्हें कभी दादी तो कभी नानी के पास छोड़कर वापस धुनी जोगन की तरह स्कूल लौट जाया जाए? मीराबाई की साधना कई रूपों में दिखाई देती है, कई रूपों में बसे ईष्ट के लिए।
"हम एक को अपने मायके लखनऊ में छोड़ते थे, एक को अपने साथ गांव में रखते थे। सालभर के थे तब बच्चे। फिर पंद्र्ह दिन बाद बच्चा बदल कर लाते थे और यही सिलसिला उनके थोड़े बड़े हो जाने तक चला। क्या बताएं बेटा कि जिस बच्चे को छोड़कर आते थे उसके लिए क्या हालत होती थी।"
जानती हूं आंटी, मैं उनसे कहना चाहती हूं, लेकिन कह नहीं पाती। थोड़ी-सी नींद हासिल करने के लिए एक बच्चे को कभी दादी, कभी नानी के कमरे में छोड़ आना याद आता है। याद आती है अपनी वो जगलिंग कि जब एक को नानी के पास छोड़ने रांची गई थी, दूसरे को दादी के पास छोड़ आई थी। ये भी याद आया है कि पंद्रह-पंद्रह दिनों पर उनमें से किसी एक के पास लौटती थी तो दूसरे के लिए रूह रोती थी और एक को गोद में लिटाए हुए सोचती थी कि दूसरे को किसने लोरी सुनाई होगी? बाबा-दादी और नाना-नानी बच्चों को कितना प्यार करते हैं, मगर फिर भी... आंटी स्कूल के साथ-साथ बच्चों को पालने की कहानी बताए जाती हैं, मैं अपने आंसू ज़ब्त करने की कोशिश में उलझती जाती हूं।
फिर ऐसा हुआ कि अंकल की नौकरी नैनीताल में हो गई और लोअर केजी में पढ़ने वाले बच्चों को लेकर वो वहीं चले गए। आंटी स्कूल चलाने के लिए गांव में ही रह गईं। क्या ज़रूरत थी? उन्होंने क्यों नहीं चुन लीं आसानियां?
छुट्टियों में मिलने आती थीं बच्चों से। कहती हैं, "बस स्टैंड पर बीच में खड़े पापा के अगल-बगल खड़े दोनों बच्चों को छोड़कर आते थे तो लखनऊ पहुंचने तक रोते रहते थे। लगता था, अपना कोई हिस्सा वहीं छोड़ आए हैं। आज के ज़माने की तरह फोन थोड़ी थे बेटा? एक चिट्ठी आया करती थी कभी पंद्रह दिन पर, कभी महीने में एक बार अंकल की। हम सुबह-शाम कई-कई बार वो चिट्ठी पढ़ते थे, हर अक्षर में, हर लाईन को बार-बार, कि उनकी कही हुई कोई बात हमसे छूट ना जाए। एक बार हम बिना बताए नैनीताल पहुंच गए। घर के थोड़ी दूर स्कूल का बस्ता लटकाए बेटा मिला। वो बैठकर पत्थरों से यूं-यूं निशाना लगाकर दूसरे पत्थरों को मार रहा था। हमने पूछा, घर क्यों नहीं गए बेटा? उसने कहा, घर पर ताला बंद है। तब बहुत रोए हम।"
इतनी मुश्किलें? तो फिर हार क्यों नहीं मान ली आंटी ने? ये कैसी ज़िद थी? बच्चे बड़े हुए, और अपनी जीवट मां के लिए स्नेह और सम्मान बढ़ा ही होगा, कम नहीं हुआ। दो बच्चे पालतीं आंटी या फिर हज़ारों बच्चों को चालीस सालों में शिक्षित करके उनकी ज़िन्दगी संवारने का काम किया होता। सिर्फ दो बच्चों की मां बनी रहतीं, या पूरे गांव-जवार की प्रिंसिपल साहब बन जातीं... चुनाव कितना आसान तो था।
इतना आसान भी नहीं रहा होगा क्योंकि एक मां से बेहतर ये कोई नहीं जानता कि उसके बच्चों की बेहतरी किसमें है और उन्हें कब क्या चाहिए। अपने बच्चों को छोड़ आने के अपराध बोध और बोझ के साथ ईमानदारी से काम करते चले जाना आसान रहा होगा क्या? पुरुष या पिता का काम करना, काम के प्रति ईमानदार होना, अपने सपने को जीना उसे एक आदर्श नागरिक, एक आदर्श इंसान बनाता है। स्त्री कामकाजी हो और उसी जुनून के साथ अपने हुनर का इस्तेमाल करे तो उसे ख़ुदगर्ज़ और महात्वाकांक्षी, कई बार ज़ालिम तक, क़रार दिया जाता है। ऐसा भी क्या काम करना, मुझसे भी कहते हैं लोग।
ये भी स्वीकार करना होगा कि वीमेन एम्पावरमेंट बिना पुरुष के सहयोग के मुमकिन नहीं होता। अगर अंकल ने साथ नहीं दिया होता तो? दो छोटे बच्चों को नहलाने-धुलाने से लेकर खिलाने-पिलाने और साफ कपड़े पहनाने की ज़िम्मेदारी अकेले ना उठाई होती तो? एक के आंखों के सपनों का दूसरे की आंखों की किरकिरी बन जाने की मिसाल भी तो देखी है हमने। एक-दूसरे के सपने को पूरा करने के लिए अपना जीवन होम कर देने की ये मिसाल भी देखिए। और हम कहां-कहां तो सोर्स ऑफ इन्सिपेरेशन ढूंढते रहते हैं जबकि ईश्वर हमें जाने किस-किस रूप में ज़िन्दगी के पाठ पढ़ाने आया करता है। जाने किस-किस रूप में आकर बताता है कि चुन लो मुश्किलें क्योंकि जब ज़ुल्फ के सर होने का वक़्त आएगा और मुड़कर देखोगे तो तमाम मुश्किलें आसान लगने लगेंगी। ईश्वर मुझे अभी एक औरत, एक पत्नी, एक मां, एक टीचर के रूप में मिला है।
लखनऊ ज़िले के कुनौरा गांव में अपने स्कूल भारतीय ग्रामीण विद्यालय के प्रांगण में बच्चों और शिक्षकों के साथ आंटी (श्रीमती निर्मला मिश्र) और अंकल (श्री एसबी मिश्र) |
13 टिप्पणियां:
कहीं आप अपनी लेखकीय यात्रा के सिलसिले में निलेश जी के पैतृक गांव तो नहीं पहुंच गईं ?
मैं बस अंदाजा लगा रहा हूँ :)
यूँ ही नही इतिहास बना करते
ऐसी हस्तियों के विषय में जान कर लगता है...व्यर्थ ही गँवा दी अपनी जिंदगी..
इन नेक और महान लोगो को मेरा प्रणाम .ये सब मिल के पत्थर हैं .
कुछ कहना उचित न होगा बस चरण वंदना जिन्होंने इस पुण्य कार्य में साथ दिया
मिश्र दंपत्ति से परिचय करवाने का शुक्रिया ........
इन नेक और महान लोगो को मेरा प्रणाम .ये सब मिल के पत्थर हैं .
कुछ कहना उचित न होगा बस चरण वंदना जिन्होंने इस पुण्य कार्य में साथ दिया
मिश्र दंपत्ति से परिचय करवाने का शुक्रिया ........
मुश्किलें चुने जाने के पहले तक अपना रुक्ष पक्ष दिखाती हैं...
i salute such people
सचमुच एक मिसाल .......यह जनून विरलों का ही हो सकता है ! प्रेरणा दंपत्ति !
इस बेमिसाल सत्य कथा को साझा करने के लिए आभार !
राह चुनना, राह पर चलना और राह बनाने का फर्क.
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बेहतरीन रचना
दंतैल हाथी से मुड़भेड़
सरगुजा के वनों की रोमांचक कथा
♥ आपके ब्लॉग़ की चर्चा ब्लॉग4वार्ता पर ! ♥
♥ पढिए पेसल फ़ुरसती वार्ता,"ये तो बड़ा टोईंग है !!" ♥
♥सप्ताहांत की शुभकामनाएं♥
ब्लॉ.ललित शर्मा
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नेह में जल कर प्रकाश बाँटते दीप के समान प्रेरणा- पुंज बन जाते हैं ऐसे जीवन !
jindagi safal ho jati hai.... aise me!!
बेमिशाल! अद्भुत!
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