टुकडों-टुकड़ों में टीवी पर देखा वो धारावाहिक याद है। कुछ इसी तरह याद है कि यादों के कोलाज से जो निकलकर आई, वो कहानी कुछ इस तरह थी - मध्यवर्गीय परिवार की एक लड़की है जो कॉलेज जाती है, शायद किसी बड़े शहर में पढ़ने आई है और अकेली रहती है। देखने में सुन्दर है और कभी कॉलेज में, कभी रास्ते में अक्सर उसको लड़के छेड़ा करते हैं। कोई शादी-शुदा दोस्त उसको मैरिड होने के फायदे बताती है। कहती है कि वो छेड़खानी से इसलिए बच जाती है क्योंकि वो 'अवेलेबल' नहीं है, और सुहाग के चिन्हों के साथ चलती लड़की को कोई लड़का छेड़ने का ख़तरा मोल नहीं लेगा। लड़की पर दोस्त की कही बात का इतना ही गहरा असर होता है कि वो ख़ुद को सुरक्षित रखने के लिए एक मंगलसूत्र डालकर कॉलेज जाने लगती है।
मुझे वो एक सीन तक याद है जिसमें मुख्य किरदार निभानेवाली दीपिका चिखलिया मोटरसाइकिल पर बैठे लफंगे लड़के के सामने दोनों बांहें सीने के आर-पार बांधकर खड़ी हुई है, गले में मंगलसूत्र है और चेहरे पर गज़ब का आत्मविश्वास। उस 'शादी-शुदा' लड़की की जान बख्श दी जाती है, लेकिन इस चक्कर में वो शरीफ लड़का भी उसे प्रोपोज़ नहीं करता जिससे नायिका की शादी हो सकती थी। आख़िर में मंगलसूत्र का सच सबको पता चल जाता है और सुहाग के चिन्हों और विवाहित बनाम कुंवारी लड़कियों के प्रति समाज को रवैये पर छोटे-से भाषण के बाद एपिसोड ख़त्म हो जाता है।
मैंने जब ये कहानी देखी थी तो इतनी ही छोटी थी कि याद है, सोफे पर टीवी देखते हुए लुढ़क जाने के बाद बाबा गोद में उठाकर बिस्तर पर सुलाने ले गए थे। ये दीपिका के सीता बन जाने से पहले की बात है, यानि करीब पच्चीस साल हो गए उस कहानी को टीवी पर देखे हुए। लेकिन मुझे वो कहानी कभी भूली ही नहीं।
कट टू रांची। मैं एक प्रोजेक्ट के लिए अपने शहर में हूं और देर शाम तक काम करने के बाद बजाए ऑफिस की गाड़ी इस्तेमाल करने के रिक्शा लेकर जाना बेहतर समझती हूं। मुश्किल से दो किलोमीटर का रास्ता है, फिर ये मेरा अपना इलाका है। मैं पली-बढ़ी हूं यहां। रिक्शे पर बैठकर रातू रोड से गुज़र रही हूं कि मोटरसाइकिल पर बैठा हुआ एक लड़का (जिसकी उम्र कम-से-कम मुझसे आधी होगी) बगल से गुज़रता है, घूमकर फिकरे कसते हुए, और पीठ पर धौल जमाते हुए।
पहला रिएक्शन शॉक है, जिससे उबरने में इतना ही वक्त लगा है कि मैंने उस लड़के की शक्ल भी ठीक से नहीं देखी। दूसरा रिएक्शन गुस्से का है। मेरा ख़ून इस क़दर खौला है कि मैं शहर में आग लगा देना चाहती हूं। रास्ते में उतरकर अपने दोस्त को बताया है तो वो उल्टा मुझपर ही नाराज़ होता है - किसने कहा था रिक्शे से आने को? गाड़ी क्यों नहीं मंगवाई? मैं उससे आगे और बहस नहीं करना चाहती।
घर आकर बताती हूं तो सत्रह साल की मेरी बहन कहती है, आप भी जो हैं ना दीदी। सिंदूर, चूड़ी, बिंदी कुछ लगाती नहीं हैं। किसी एंगल से मैरिड नहीं लगतीं। ये तो होना ही था।
और तुम? तुम्हें कौन बचाएगा ईवटीज़िंग से, लड़की? तुम भी नकली मंगलसूत्र पहनकर घूमो, कि बच जाओ फिकरों से। मेरी झल्लाहट बेचारी बहन पर निकली है।
मैं शादी-शुदा नहीं लगना चाहती। चूड़ी, बिंदी और मंगलसूत्र पहन लेती हूं, लेकिन शायद साल में तीन बार, वो भी सासू मां का दिल रखने के लिए। सिर पर पल्लू रखने को इज़्जत का प्रतीक नहीं मानती और इस मामले में क़रीब-क़रीब बग़ावती हूं। हालांकि, ये भी कभी-कभी कर लेती हूं, सासू मां का दिल रखने के लिए।
शादी हुई थी तो लोग कहते थे, तुम तो मैरिड लगती ही नहीं। अरे कमबख़्तों, अब माथे पर 'टेकेन' की तख़्ती लिए चलना ज़रूरी है क्या? ऐसा ही कोई एक बोर्ड तुमलोग मर्दों के लिए भी क्यों नहीं तैयार कर देते? उनसे तो कोई नहीं कहता - यू शुड लुक मैरिड।
अब बस, ससुराल में इसी एक बात पर ठनते ठनते रह गई है। इस बार मैंने भी ठान लिया है, जैसी हूं वैसी स्वीकार करो कि अब मुझसे नहीं होगा सुहागन दिखने का स्वांग। पहले चूड़ियां उतरी हैं (खिड़की बंद करते हुए कांच की चूड़ी टूटी और हाथ कट गया, ब्लेसिंग इन डिसगाइज़!), फिर सिंदूर - सिर धो लिया और अब नहीं लगाऊंगी। ज़रूरी है नई-नवेली दिखूं साढ़े सात साल बाद भी? थोड़ा मुंह-फुलवल है, फिर मनौव्वल है। फिर लंबी बहस है, और हथियार का डाल दिया जाना है (सिन्होरा सेरेमोनियल पर्पज़ के लिए अलमारी में बंद कर दिया गया है)। रह गई बिंदी, तो मैचिंग ही सही, लगा लिया करो कभी-कभी। चलो, इतना मान लेते हैं। लेकिन नेल-पॉलिश, आलता, पायल, बिछुआ - सब दराज़ों में बंद। अपने पति के लिए मेरे प्यार का पैमाना चूड़ियों की संख्या को ना बनाया जाए, ना सिंदूर का रंग तय करेगा हमारे रिश्ते का रंग - मां से कहा है तो वो सिर्फ इतना कहती हैं - सही बात है।
कल देखा कि मां के हाथ में एक भी चूड़ी नहीं। सिंदूर भी नहीं। बिंदी भी नहीं। शॉक जैसा कुछ लगा है। लेकिन एक हल्की-सी नाइटी में सोफे पर बैठी मां किसी बात पर खिलखिला रही हैं। ना, ये नाराज़गी नहीं हो सकती। थोड़ी देर में देखती हूं कि ज़मीन पर बैठकर बड़ी तन्मयता से अपनी खाली कलाइयां आगे किए हुए पापा के पैरों के नाखून काट रही हैं। मुस्कुराकर उनकी ओर देखती हैं और कहती हैं, सीधे बैठिए ना। हिल रहे हैं, कहीं नाखून के बदले उंगली ना कट जाए।
मां की सूनी कलाइयों में चूड़ियां डाल दूं? ज़ेहन में सवाल आया है, लेकिन उसे दरकिनार कर आराम से बैठ गई हूं। हम सब उन्मुक्त हो जाने के अलग-अलग तरीके, अलग-अलग वक्त और बहाने ढूंढ लेते हैं। फिर सुहाग के चिन्हों के मायने अलग-अलग पीढ़ियों के लिए अलग-अलग क्यों हों? ज़रूरी थोड़े है कि समाज के समक्ष ख़ुद को सबला दिखाए जाने के लिए कुछ और ढोंग किए जाएं? फील फ्री टुडे, डियर मदर-इन-लॉ!
13 टिप्पणियां:
पति के लिए मेरे प्यार का पैमाना चूड़ियों की संख्या को ना बनाया जाए, ना सिंदूर का रंग तय करेगा हमारे रिश्ते का रंग - Well Said!
एक बार मेरी माँ घर आके कहतीं हैं कि भागवत कथा में आज बताया गया है कि स्त्रियों को तीन बिछुए पहनने चाहिए, एक पति के लिए, एक भाई के लिए और एक भगवान् के लिए... मेरे मन में तुरंत प्रश्न आया, पति और भाई तो छोडो,पर क्या भगवान् केवल स्त्रियों के ही होते हैं, पुरुषों के नहीं... फिर तो पुरुषों को भी भगवान् के लिए कम से कम एक बिछुआ तो पहनना ही चाहिए... :))
@अरे कमबख़्तों, अब माथे पर 'टेकेन' की तख़्ती लिए चलना ज़रूरी है क्या? ऐसा ही कोई एक बोर्ड तुमलोगमर्दों के लिए भी क्यों नहीं तैयार कर देते? उनसे तो कोई नहीं कहता - यू शुड लुक मैरिड।
चकाचक !
बिल्कुल सीधी और खरी बात!सहमत हूँ आपसे.
पर आपकी पोस्ट पर एक दो बातें और कहनी हैं, आता हूँ एक छोटे से ब्रेक के बाद.
लीजिए हमारी तो टिप्पणी स्पैम में भी चली गई!
जियो ...आजकल तुम मेरे मन की बातें पढ़ने लगी हो क्या ?:).
अरे भाई पूरी कॉस्मेटिक और जूलरी की चलती फिरती दुकान बनना हमारे बस की बात नहीं है ..
आपने काफी हद तक ठीक कहा मगर आज यहाँ मैं आपसे सहमत नहीं :-) क्यूंकी मेरे विचार से यह मान्यता वाली बात है यह ज़रूरी नहीं की कोई अगर इन सब चीजों का प्रयोग करता है तो वो केवल दिखावा मात्र ही है। मैं यह नहीं कहती की सब चीजों का प्रयोग किसी हिन्दी टीवी सीरियल की हीरोइन की तरह किया ही जाना चाहिए मगर हाँ मेरा यह मानना ज़रूर है कि एक आद चीज़ का उपयोग तो होना ही चाहिए आखिर विवाहित हैं, तो हैं...तो फिर दिखने से परहेज़ क्यूँ...यह बात कुछ वैसी है कि मानो तो भगवान वरना पत्थर ही है। और एक बात शाद आपने नोट की हो कोई भी स्त्री जो हमेशा से हाथों मेन चूड़ियाँ पहनती हो और एक दिन अच्चांक उतार दे जैसा आपने लिखा है अपनी माता जी के विषय में तो उस स्त्री के खाली हाथ देखने में बहुत बुरे लगते है हो सकता है आप मुझे दक़ियानूसी या रूढ़िवादी समझे मगर मेरे हिसाब से जहां पाउन मेन पायल हाथ मेन कंगन हो माथे पर बिंदिया its happen only in india...ऐसी मेरी सोच है बाकी तो पसंद अपनी-अपनी ख़याल अपना-अपना...:):)
सहमत हूँ मैं भी !
नारीवादी पोस्ट कह कर पतली गली से निकला जा सकता है...
पर इव टीसिंग का कुछ न कुछ तो उपाय करना ही होगा, जैसे जैसे नवयुवकों के पास गजेट बदते जा रहे हैं - वैसे वैसे उनकी मानसिकता भी दूषित होती चली है.
आप भी बस आप ही हैं :)
वैसे तो प्रतीकों परम्पराओं त्योहारों आदि का अपना महत्तव हैं लेकिन ये किसी भी तरह की असमानता खासकर महला पुरूष के बीच में को बढावा देने वाले हों तो इन्हें त्यागना ही बेहतर हैं.पता नहीं हमारे यहाँ केवल प्रतीकों पर ही इतना जोर क्यों दिया गया हैं.ये सब चीजें पति पत्नी के बीच प्रेम बढाने वाली कैसे हो गई और क्या ऐसा प्रेम स्वाभाविक होता है?बल्कि मुझे तो लगता हैं उसमें एक किस्म का बनावटीपन होता है.मेरा विवाह नहीं हुआ हैं लेकिन ये बात हर रिश्ते पर लागू होती हैं कि प्रेम कोई किसी युक्ति से पैदा नहीं किया जाता हैं बल्कि यह अपने आप उमडता हैं लेकिन ये भी सच हैं कि यह हमेशा एक जैसा नहीं होता हैं कभी कम कभी ज्यादा होता रहता हँ चाहे प्रेम कितना ही गहरा क्यों न हों.क्योंकि सभी को एक व्यक्तिगत स्पेस की जरूरत होती हैं.मैं अच्छे और संस्कारी लडकों की तरह रोज सुबह उठकर अपने माता पिता के पैर नहीं छूता और न उन्हें मदर्स डे या फादर्स डे पर कोई गिफ्ट वगेरह देता हूँ बल्कि कई बार तो उनसे नाराज भी होता हूँ तो क्या मैं उनसे प्रेम नहीं करता.लेकिन फिर भी जिन्हें ये सब करना हैं करें उन्हें रोक कौन रहा हैं लेकिन जिन्हें इन सब प्रतीकों को नहीं अपनाना हैं उन्हें भी इसकी छूट मिलनी चाहिए.
बहुत खूब!
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