मेरी एक रिश्ते की
ननद आई हैं हमसे मिलने। नोएडा में ही रहती हैं, मेरे घर से कुछ तीन किलोमीटर दूर। लेकिन हम वहां कम मिल
पाते हैं, छुट्टियों में यहीं पूर्णियां में ही मिल
लिया करते हैं। कुछ दफ्तर जाने की मजबूरी, कुछ बच्चों और परिवार के बाद छुट्टियों के दिन भी फुर्सत ना
मिल पाने का रोना। सोनी मेरे पसंदीदा लोगों में एक हैं - बातचीत में साफगोई और
ईमानदारी, कहीं कोई लाग-लपेट नहीं। महारानी गायत्री
देवी गर्ल्स स्कूल की पढ़ी हुई, एमबीए और एक बड़ी
कंपनी में सालों से काम कर रही हैं। हर रोज़ गुड़गांव से नोएडा तक का वो थका
देनेवाला सफ़र बिना किसी शिकन के तय करती हैं, जिके बारे में सोचकर ही मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
सुबह चार बजे से लेकर आधी रात तक सुकून नहीं। दो बच्चों की मां हैं, लेकिन फिर भी काम करती रहीं लगातार।
हंसकर कहती हैं, भाभी, सब कहते हैं कि नौकरी छोड़ क्यों नहीं देती? कैसे छोड़ दें? इतनी मेहनत लगी है यहां तक पहुंचने में।
सही बात है। मैं सोनी की हिम्मत से इतनी ही प्रभावित हूं कि उठकर गले लगा लेना चाहती हूं और पूछना
चाहती हूं, कैसे करती हो ये सब? सोनी बच्चों को बोर्डिंग में भेजने की
हिमायती हैं। उनके लिए एक्सपोज़र ज़रूरी है, वैसा माहौल जो मुझे मिला, कहती हैं, तो मैं अपनी
परवरिश के बारे में सोचने लगती हूं - जो मिली, उसके बारे में भी, जो बच्चों को दे रही हूं, उसके बारे में भी।
घर की एक और बहू
के बारे में चर्चा होती है, जिनसे मैं एक ही बार मिली हूं। भाभी
इंग्लैंड में डॉक्टर हैं। मां बताती हैं कि उन्होंने दस दिन के बेटे को बाबा-दादी
के पास छोड़ दिया क्योंकि उन्हें एमडी करना था। भाभी ने एमडी भी किया, अस्पताल में नौकरी भी की, बेटे को अपने साथ भी ले गईं और उसे अकेले
पाला भी। जब दिन की ड्यूटी होती तो बेटे को केयरटेकर के साथ छोड़कर जाया करतीं और
जब नाइट ड्यूटी होती तो उसे अपने साथ अस्पताल ले जाया करतीं। उनका बेटा अब इंग्लैंड के सबसे मशहूर रेसिडेंशियल स्कूल में दसवीं में पढ़ रहा
है, और वर्ल्ड थिएटर मीट में इंग्लैंड को रेप्रेज़ेन्ट करनेवाले छह बच्चों में से
एक है। बल्कि इकलौता हिंदुस्तानी बच्चा है जो बुडापेस्ट में शेक्सपियर के नाटक का
मंचन कर रहा होगा। मां काम करती रही तो बच्चा उपेक्षित रहा या बिगड़ गया?
मैं ऐसी कई
दोस्तों को जानती हूं जो बच्चों को पालते हुए दफ्तर और घर के बीच कमाल की जगलिंग
करती हैं, ऐसी कि पेशेवर नटों को भी उनका टाइट
रोपवॉक देखकर शर्मिंदगी हो जाए। मैं खुद बच्चों को क्लायंट मीटिंग्स में ले गई हूं, शूट पर गई हूं तो एक को नानी के पास
छोड़ने के लिए रांची गई हूं, दूसरे को दादी के
पास छोड़ने के लिए पूर्णिया। ऐसा भी हुआ है कि एक हफ्ते में सात शहरों और तीन
राज्यों की यात्राएं की हैं, क्योंकि सपोर्ट
सिस्टम उतने ही दिनों के लिए मौजूद था।
हम जैसों में इतनी बेचैनी क्यों है फिर? ये कौन-सा जुनून है जो हमें चैन से बैठने
नहीं देता। काम करना मजबूरी है या वाकई कोई जुनून ही? आसान नहीं होता अगर चुन लिया होता घर में
शांति से बैठ जाना? मैं जेंडर बैलेंस की बहस में नहीं पड़ना
चाहती, लेकिन इस बात से पूरी तरह इत्तिफाक रखती
हूं कि हुनर और क्षमता किसी एक जेंडर की जागीर नहीं होती। जिस तेज़ी से पुरुषों के
दिल-ओ-दिमाग काम किया करते हैं, उतना ही शार्प
औरतों की सोच और ज़हानत होती है। ऐसा नहीं कि मैं घर में बैठ जाने के ख़िलाफ़ हूं।
बल्कि वैसी महिलाएं तो बड़ी वाहवाहियों की हकदार हैं। मेरी मां भी वैसी महिलाओं
में शामिल हैं, और मैं मां की तरह नहीं होना चाहती थी, इसलिए बेचैन रहती हूं इन दिनों।
लेकिन आसान नहीं है दोनों जहान की ज़िम्मेदारियां उठाए
चलना। कोफ्त होती है, थकान होती है और लगता है कि इतनी मुश्किलें क्यों पैदा कर
रहे हैं अपने लिए? अब आज की ही बात ले लीजिए। मैं गर्मी छुट्टियां आराम से घर पर
रहकर काट सकती थी। लेकिन लखनऊ जा रही हूं, इसलिए, क्योंकि एक सपने में यकीन है।
यकीन है कि नामुमकिन-सा दिखने वाला ये काम दरअसल एक नई मिसाल कायम करेगा। यकीन है
कि ऐसी ही छोटी-छोटी पहल से एक बड़ा बदलाव आता है। और इस बात का पुख़्ता यकीन है
कि मुझे अपनी भूमिका अदा करनी चाहिए, अपना स्किल-सेट बांटना चाहिए, चाहे इसके लिए
ख़ुद के साथ कितनी ही ज़्यादतियां क्यों ना करनी पडें?
मुश्किल बढ़ जाती है जब गर्दन से लिपटकर बेटी फूट-फूटकर
रोती है। मत जाओ मम्मा। इतना काम क्यों करती हो? मैं कहती हूं, आप भी तो करते हो
ना कितना काम आद्या। स्कूल जाती हो तो मम्मा कहां रोकती है आपको रोकर? तो क्यों
नहीं रोकते मम्मा? मैं तो जाना भी नहीं चाहती स्कूल। मैं लाजवाब हो गई हूं और उसका
रोना बंद नहीं हो रहा। मैं जेंडर बैलेंस का फंडा देती हूं फिर से, जस्ट ऐज़
आद्या-आदित दोनों स्कूल जाते हैं वैसे ही पापा को काम के लिए बाहर जाना होता है और
मम्मा को भी। नहीं... आप तो मम्मा हो ना? आपको नहीं जाना चाहिए। ये मेरा दूसरा तीर
निशाने से बहुत दूर जाकर गिरा है, लाचार और हारा हुआ।
अगले एक घंटे में मेरी ट्रेन है, वो भी कटिहार से, जो घर से
तीस किलोमीटर दूर है। समझाने की सारी कोशिशें नाकाम हो जाती हैं, वो मुझसे लिपटी
खड़ी रोती रहती है। जी में आता है, सब छोड़ दूं। कहीं नहीं जाऊं। सारे सपनों को आग
लगा दूं। कोई मजबूरी नहीं। कोई ज़रूरत नहीं। लेकिन एक ज़िन्दगी है और ख्वाहिशें
कमबख्त पापी होती हैं। मैं महत्वाकांक्षी हूं? नहीं जानती। फिर भी चचा ग़ालिब याद
आए हैं - ईमान मुझे रोके है तो खींचे है मुझे कुफ्र... मैं काम करने की मजबूरी से
मजबूर काफ़़िर मां हूं, और मुश्किल है घर से निकलते हुए तुम्हें बाय कहना, बेटा।
पोस्टस्क्रिप्ट – पोस्ट लिखते हुए बेटी का फोन आया। मम्मा,
आपको मुंबई भी जाना है। मैं कहती हूं, हां बेटा, काम तो है लेकिन तभी जाऊंगी जब आप
कहोगे। सोचकर थोड़ी देर में फोन करती हूं मम्मा, फिर हम डिसाईड कर लेंगे कि आपको
जाना चाहिए या नहीं। आद्या ने इतना कहा है और मेरा जीना आसान हो गया है आज के लिए।
8 टिप्पणियां:
शर्ट का बाजू समेटा है.
चौधराइन, इंजेक्शन प्लीज़ !
जब तक थोड़ा सा भी अनमनापन रहता है, थकान बनी रहती है।
ये बड़े मुश्किल दिन होते हैं...जी कड़ा कर फैसले लेने पड़ते हैं...पर अंजाम सुखद ही होगा..जब आद्या बड़ी हो जायेगी तो एक नई शुरुआत की जद्दोजहद नहीं रहेगी.
यह मनुष्य प्रजाति है -घर बैठू कभी न रही और विश्व विजय कर लिया ....
कभी बनारस भी पैरों के पहिये रुकें .......
यूं ही बीतता जाता है एक-एक दिन.
hmm...वाकई बहुत कठिन है एक मां के तौर पर यूं इतने सारे ख्वाहिशों को पूरी भागदौड़ के साथ पूरा करना।
सचमुच आसान नहीं एक साथ सब कुछ कर लेना और जो कर लेते है गजब की शक्ति होती है ,
खुबसूरत पोस्ट जिंदगी के पहलुओं को उजागर करती............
रोचक डायरी हैं!
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