कुछ दशक पहले तक पूर्णियां की नब्बे फ़ीसदी जमीन पर कुल चार या पांच रियासतें और ज़मींदार काबिज़ थे। चंपापुर, गढ़बनैली और राजा पीसी लाल का नाम तो मैं अक्सर सुना करती हूं। इन्हीं रियासतों की सूची में सबसे नीचे एक और रियासत हुआ करती थी, जिसके बारे में कहा जाता है कि ये रियासत विरासत की नहीं थी, बनाई गई थी। इस रियासत के बनने की प्रक्रिया में कौन-कौन सा रास्ता अख्तियार किया गया होगा, इसपर एक महाकाव्य लिखा जा सकता है। बहरहाल, इसी एक रियासत की बात करनी है मुझे, जिसमें मेरी शादी हुई।
तीस-पैंतीस साल पहले सीलिंग एक्ट के लागू होने के बावजूद, दादी सास के भूदान आंदोलन में ज़मीन खुलकर बांट आने के बावजूद, एकड़ों-एकड़ों ज़मीन पर अतिक्रमण के बावजूद भी मेरी शादी तक ज़मीन इतनी बाकी थी कि नाते-रिश्तेदार रश्क करते हुए कह सकें, बड़े ज़मींदार परिवार में जा रही है लड़की। उसके बाद से अब तक तय नहीं कर पाई हूं कि किस्मत को सराहूं या कोसूं, कि विरासत में मिलनेवाली ज़मीन के साथ-साथ एक अनचाहा भार भी मिला है जिसे संभालना नहीं आता।
तो ये रियासत एक ज़माने में बिहार के दस बड़ी ज़मींदारियों में गिनी जाती थी। दो बड़े बंटवारों के बाद हर परिवार के हिस्से में इतनी ज़मीन आई कि खेती करने के साथ-साथ ज़मीन को बेच-बेचकर बच्चों को दार्जीलिंग और दिल्ली के हॉस्टलों में पढ़ने के लिए भेजा जा सके और अगली दो-चार पुश्तों के भविष्य को सुरक्षित रखा जा सके। रियासत के मालिक ने इतनी समझदारी दिखाई कि बेटियों का ब्याह गरीब परिवारों के ऐसे लायक लड़कों से कम दहेज देकर किया गया जिनमें डॉक्टर, इंजीनियर, बैंकर बनने की प्रतिभा थी। बहुएं लाईं गईं बड़ी रियासतों से, जिनके साथ सोने-चांदी-हीरे-जवाहारातों के साथ ताक़तवर रिश्तेदारियां आतीं।
ये पिछली पीढ़ी के किस्से हैं। पिछली पीढ़ी का सच ये भी है कि जहां अति होती है, अति भी वहीं होती है। सो, ज़मींदारी बिखरती गई और ज़मीन-जायदाद नशे और ऐय्याशियों की भेंट चढ़ने लगे। बंटवारे के बाद भी एक धुर ज़मीन के लिए भाई-भाई एक-दूसरे के ख़ून के प्यासे रहे। पूरा परिवार बेईमानियों, डर, अवसाद और कर्ज़ के बोझ तले दबता चला गया। ज़मींदारी नहीं बची, और किसी तरह बची-खुची ज़मीन पर खेती करके परिवार गुज़ारा करते रहे। लेकिन ऐंठ ना जानी थी, नहीं गई।
चौदह भागों में बंटे परिवारों में एक वो परिवार भी था जिसमें मेरी शादी हुई। बड़े पापा डॉक्टर थे, सन बहत्तर में ही न्यू यॉर्क जाकर बस गए और वहीं के हो गए। बाकी रहीं दो बुआएं, जिनकी शादी नौकरीपेशा लड़कों से हुई। मनीष के कुल दस भाई-बहनों में छह विदेशों में हैं। कोई लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से पढ़ा, तो किसी की संतान हावर्ड मेडिकल स्कूल में है। एक बच्चा बर्कशायर के एटन कॉलेज में पढ़ रहा है तो दूसरा केम्ब्रिज जाने की तैयारी कर रहा है।
रह गए पापा, जिन्होंने एग्रीकल्चर की पढ़ाई ही इसलिए की ताकि खेती-खलिहानी और ज़मीन-जायदाद संभाल सकें। सुना है कि अस्सी के दशक में खेतों से इतना गन्ना निकला करता था कि लाखों-लाख के गन्ने बेचकर कम-से-कम तीस परिवारों का भरण-पोषण होता था। ये भी सुना है कि पापा की लगाई हुई फ़सल की चर्चा पूरे सूबे में होती थी और वर्ल्ड बैंक की टीम उनके खेतों को देखने आई थी एक बार। ये भी सुना है कि वो सुबह चार बजे से ही खेतों में लग जाया करते। मज़दूरों की बस्तियां बसाईं गईं, उनके लिए घर बनाए गए, सीलिंग से बचने के लिए उनके नाम ज़मीनें रखी गईं। हालांकि इच्छा सतह को कुरेदकर वहां से भी कहानियां निकालने की होती हैं, लेकिन कुछ किस्से अनकहे ही अच्छे होते हैं।
फिर धीरे-धीरे खेती भी खत्म हो गई, सामंतवाद भी। किस्मत का उड़नखटोला एक जगह टिकाकर नहीं रखता कभी किसी को। संतुलन के लिए आवश्यक है कि पहिया घूमता रहे, किस्मतें बदलती रहें। ज़मीन हाथ से निकलने लगी है। बगीचों पर, खेतों पर उन्हीं गरीबों ने घर बना लिए हैं जिनके बाप-दादाओं को सरहद पार से लाकर यहां बसाया गया था। सरकार द्वारा अधिग्रहण ज़मीन के बदले सालों-साल से कॉम्पेनसेशन नहीं मिला। ज़मीन के झगड़ों को लेकर इतने सारे दीवानी और फौजदारी मामले ज़िला अदालतों में हैं कि मुझे लगता है, सरकार को सिर्फ परोरा एस्टेट के मामलों को निपटाने के लिए अलग से बेंच बना देना चाहिए। ज़मीन को बचाने के इस युद्ध में पैसा, रुतबा, वक्त - सब झोंका जा रहा है। सभी चौदह परिवारों की दिनचर्या एक-सी है। घर का कम-से-कम एक पुरुष सदस्य हर रोज़ अदालतों के चक्कर लगाने के लिए घर से निकलता है, वहीं छप्पर डालकर बनाए गए होटलों में मीट-चावल और रसगुल्लों का लंच करता है और बटाईदारी कानून को जी-जीभर कर गालियां देता है। बची-खुची गालियां नीतिश कुमार के हिस्से में भी जाती है, जो ना पिछड़ों के हो सके ना अगड़ों के।
मैं मां से पूछती हूं कि इसका हासिल क्या है? गांव के जिस पुश्तैनी घर में कोई रहता नहीं उस घर को हम किसी स्कूल को दान में क्यों नहीं दे देते? जिन ज़मीनों पर कुछ उगाया नहीं जाता, उन्हें बांट क्यों नहीं दिया जाता? बांटने की दरियादिली नहीं तो बेच सकने से जुड़ा लालच तो है। लेकिन फिर हम ज़मींदार कैसे कहे जाएंगे? मैं लंबी सांस भरती हूं और मन मसोस कर रह जाती हूं जब बात होती है आदित की। उसके लिए हम क्या छोड़ेंगे? हुनर मां, मैं कहना चाहती हूं। मेरे बच्चों को भी उन्हीं फैंसी कॉलेजों में पढ़ने का हक़ है जहां विदेशों में रहने वाले उनके बाकी भाई-बहन पढ़ रहे हैं।
और आदित खेती करना चाहे तो? इसी ज़मीन पर सोना उगाना चाहे तो? यहीं रहकर समाज बदलना चाहे तो? बिहार का भविष्य बदलने में योगदान देना चाहिए तो?
मैं चुप रह जाती हूं। ये चुनाव भी तो मेरा ही था। ये कैसी दुविधा है? ज़मीन और आसमान के बीच त्रिशंकु-सा लटकने रहने की कैसी सज़ा है? ये कैसी विरासत सौंपेगें हम अपने बच्चों को?
6 टिप्पणियां:
आज की पोस्ट बहुत उदास कर गयी...
अपने पापा को इन्हीं भावनाओं में उलझे देखती हूँ...उन्होंने भी खेतों की देखभाल के लिए एग्रीकल्चर की पढाई की थी....रिटायर्मेंट के बाद गाँव में बस जाने का इरादा था पर रह नहीं पाए क्यूंकि.. वहाँ बिजली नहीं रहती..टी.वी...इंटरनेट...अखबारों से दूरी हो जाती है....बात करने को अपने मानसिक स्तर के लोग नहीं मिलते पर इस उम्र में भी खेतों की देखभाल...फसलों की बुआई...कटाई..सिंचाई के लिए अक्सर...पटना से आठ घन्टे का सफ़र तय कर गाँव का चक्कर लगाते रहते हैं...कितने कष्ट सहे...पर एक धुर जमीन नहीं बेची कि पुरखों की संपत्ति संजो कर रखनी है..पर किसके लिए??...दोनों भाई महानगरों में रहते हैं..उनकी अपने जीवन की उलझनें हैं....फिर भी पापा को विरासत में पुरखों की थाती सौंप जानी है.
कुछ ऐसी ही कहानी हमारे परिवार की भी है, बाबा के पास इतनी जमीन थी कि ठीक से संदोहन होता तो ७ पुश्तें आनन्द में जी सकती थी। स्वार्थ आदि ने सब नष्ट कर दिया, अब सबको वह खेती बोझ लगती है।
यक्ष प्रश्न.. हम क्या छोड़ जायेंगे ! इससे भी शायद बड़ा यह है कि जैसे जैसे हमारे बच्चे बड़े होंगे और इन चीज़ों को समझने लगेंगे तब वह हमसे क्या एक्सपेक्ट करेंगे..
बहुतेरों की कहानी है यही.
''और आदित खेती करना चाहे तो? ... परती परिकथा ?''
विरासत के संदर्भ हमारे व्यक्तित्व पर हावी न हों, इतना काफी है.
आपकी शिक्षा ने आपको जो संस्कार दिए हैं उसी की प्रतिफलन है यह पोस्ट....
आपके मन में एक तटस्थता तिर आयी है अनावश्यक वैभव और लक्जरी को लेकर
आपका यह विचार कितना अच्छा है कि खाली महल में अब एक स्कूल खोल दिया जाय..
यह सचमुच एक बहुत अच्छा प्रस्ताव है मगर माना शायद ही जाय ..
आदित को क्या लेना देना वहां से -उसे उसका पुरुषार्थ उससे भी अधिक कुछ अर्जित करा देगा
कोर्ट कचहरी के मामले पीढ़ियों चलते हैं और फिर भी फैसलों में खामियां रह जाती हैं ....
कहाँ वहां से आसक्ति -छोड़ दीजिये सब !
विरासत ..से जुड़े मोह .
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