हरि भैया का पूरा नाम हरि उरांव है। पूरे खानदान में तीन ही लोग उन्हें हरि भैया बुलाते हैं - एक मैं और दूसरे मेरे दो बच्चे। दो साल पहले हमने इस परिवार की ख़िदमत करते हुए हरि भैया की सिल्वर जुबली समोसा खाकर और पूर्णियां ड्राईव पर जाकर मनाई थी। मतलब, इस परिवार के साथ उन्हें सत्ताईस साल हो गए हैं। यूं तो हरि भैया ड्राईवर हैं, लेकिन उनके हिस्से आए कामों में बाथरूम के नल ठीक करना, बिजली के खराब तारों को बदलना, ट्यूबलाईट का चोक बदलना, करेले का भरवां और बूंदी के लड्डू बनाना, आनेवाले ख़ास मेहमानों के लिए हरि-स्टाईल मटन बनाना और बैंक, बाज़ार और बाहर के बाकी सारे काम हैं। माने हरि भैया ऑल इन वन हैं।
यूं तो मनीष से भी बड़े हैं, दीदी से भी। लेकिन हम सब उनके लिए क्रमशः भैया, दीदी औऱ भाभीजी हैं। मुझे याद नहीं कि उन्हें पुकारा गया हो और उन्होंने 'जी' के अलावा किसी और तरीके से जवाब दिया हो। हरि भैया पतिदेव के हनुमान भी हैं जिनपर असंभव कार्यों को कर दिखाने की ज़िम्मेदारी है। इन असंभव कामों में समुद्र लांघ आने के अलावा सत्तर साल पहले का खतियान निकलवाना, बेनामी ज़मीनों को रसीद कटवाना और नशे में धुत्त अमीनों को पकड़कर घर ले आना का काम शामिल है।
हम छुट्टियों के लिए नहीं आते, हरि भैया की बैंड बजाने आते हैं। सिलिगुड़ी भी जाना है, दार्जिलिंग भी। गांव भी जाना है, भट्ठा बाज़ार भी। बच्चों को फुटबॉल भी खेलना है और खाना भी हरि भैया के हाथों का ना मिले तो क्या फ़ायदा? आप थकते नहीं हरि भैया, मैं पूछना चाहती हूं। लेकिन अपने सवाल पर शर्म आती है।
तो हुआ यूं कि ऐसी मूसलाधार बारिश हुई कि घर से निकलना नामुमकिन। चाय औऱ पकौड़ों के बीच में मां ने हरि भैया को सामने बिठा दिया। हरि की कहानी के आगे तुम्हारी सारी कहानियां फेल हैं। तो हरि, बताओ ना कि कैसे बचपन में तुमको खाने के लिए कुछ नहीं मिलता था और तुमलोग घोंघा पकड़कर खाते थे?
डिड आई हियर इट राईट? घोंघा?
बिना किसी उतार-चढ़ाव के, आवाज़ में बिना किसी नाटकीयता के हरि भैया ने जो कहानी सुनाई वो अक्षरशः लिखने की कोशिश कर रही हूं...
"पांच ठो भाई-बहन थे हमलोग। मेरा बहन और हम सबसे छोटे थे। मेरा बहन हमसे थोड़ा ही छोटी थी। बाकी बड़ा बहन लोग का सादी हो गया था। एक ठो बहन का तो उधर माटीगारा के पास सादी हुआ है। उसी का बेटा का मेहमानी में गए थे हम अभी थोड़ा दिन पहले।
हमारा बाप को कुछ काम-उम करता नहीं था। खाली हंड़िया पीकर ढ़िमालाता रहता था। हमारा मां काम करती थी। बहुत काम करती थी। उधर एक ठो बंगाली है, डे बाबू। उनका सब बच्चा सब बहुत बड़ा-बड़ा पोस्ट पर है अब। मां उनके यहां काम करती थी। सब काम - झाड़ू, बर्तन, रसोई, खाना-पीना, कपड़ा-लत्ता, बाड़ी-उड़ी का काम - सब काम करती थी। एईसा होता था कि मां कभी-कभी घर भी नहीं आती थी। अईसा होता था कि एकदम पईसा नहीं होता था घर में, एको ठो आना नहीं। फिर अनाज भी खतम होने लगता था। साग-सब्जी का बाते छोड़िए। हम लोग का उधर में जरा गो जमीन था, लेकिन हम लोग लईका-फईका आदमी कहां से साग-सब्जी लगाते? और बाबू को तो मतलबे नहीं था।
एक बार अईसा हो गया कि हम लोग का पूरा खाना खतम हो गया। फिर पानी पड़ने के बाद जो घोंघा-उंघा निकलता है ना, हमलोग उसको पकड़कर उसीन के नून मिलाकर खान लगे। ठीके लगता था खाने में। फिर ऊहो मिलना बंद हो गया। अब हमको आ मेरा बहिन का बड़ा जोर से भूख लगा। बाबू से खाना मांगे तो एतना पीटा हमलोग को, एतना पीटा कि देह पर निसान पड़ गया। मेरा बहिन तो बेहोस होने लगी।
फिर हमलोग सोचे कि भक्क साला, अईसे नहीं रहेंगे। चलो मां को खोजते हैं। मां को बोलेंगे कि हमलोग बेच दे चाहे तो कहीं किसी के यहां काम पर लगा दे। रास्ता-ऊस्ता मालूम नहीं था। हमलोग बहुते छोटे थे। हमरा उमर पांच-छौ साल होगा, हमरा बहिन एक-दो साल और छोटी होगी। तो हम अपना बहिन को लेकर घर से निकल गए। मालूम नहीं केतना देर चले। बीच में हमरा बहिन बेहोस होने लगी तो हम उसको रोड का किनारे बईठा के पानी खोजने चले गए। बड़ी देर के बाद पानी का एक ठो चापाकल मिला। लेकिन पानी लेके ओतना दूर जाएं कईसे? तो पत्ता को दो-चार ठो दोना बनाए और बहिन के लिए उसी में पानी लेकर गए।
बाकी औरो कुछो याद नहीं है। फिर मां पता नहीं कईसे मिल गई। छह साल के थे तो मां हमको धनबाद भेज दी। वहीं हम सब काम सीखे। आठ साल तक रहे उधर। खाना-पीना मिलता था, रहने का जगह था लेकिन जिस दस रुपया पर हमको रखने का बात हुआ था ऊ पईसा हमको कबो नहीं मिला। एको ठो रुपया नहीं। फिर हम उधर से छोड़कर वापस पुरनिया आ गए। इधर कपूर साब के यहां पर काम किए। ड्राईवरी वहीं सीखे। कपूर साब का परिवार का आठ-नौ गो बच्चा दार्जिलिंग में पढ़ता था। मेरा काम ऊ लोग को पहुंचाना, ले आना होता था। बस हम पहाड़ पर भी खूब बढ़िया से गाड़ी चलाने लगे। बच्चा सब खूब मानता था।
पईसा भी ठीके ठाक मिलता था। पईसा से जादा मान मिलता था। फिर कपूर साब का पूरा परिवार इधर से छोड़कर दिल्ली जाने लगा और हम यहां आ गए। हम अपना वाईफ को कबो काम करने को नहीं भेजे। हमको मालूम है ना घर का मेहरारू काम करने जाती है तो बच्चा सब का क्या दुरगति होता है। हम अपना बच्चा सब से भी काम नहीं करवाते हैं। कमे में गुजारा हो जाए, लेकिन हमको छोड़के कोई काम काहे के लिए करेगा?
हरि भैया, लेकिन मैं तो काम करती हूं। आपको मालूम है ना?
आपका बात दोसरा है भाभीजी। हमलोग का दोसरा टाईप का जिनगी है ना।
है तो हरि भैया, लेकिन जीवट तो आप ही कहे जाएंगे। ज़िन्दगी को सही तरीके से पछाड़ते तो आप ही हैं। हम तो ई जिनगी को जीने का ढोंग करते रहते हैं, बस....
अईसा थोड़े है भाभीजी? जरूरी थोड़े है कि घोंघा नहीं खाए तो जीवन देखबे नहीं किए? सबका अपना-अपना जीने का तरीका होता है, अलग-अलग तरह का पिरॉबलम होता है।
यही पिरॉबलम और जीने के अलग-अलग तरीके सीखने के लिए मैं हूं यहां। हरि भैया की अनंत कथाओं में से बाटती रहूंगी कुछ आपसे भी...
12 टिप्पणियां:
सबका अलग अलग पिरोब्लम है...हम लोग को तो पिरोब्लम नहीं होगा तो यही रोना ले के बैठ जायेंगे कि लाइफ में कोई पिरोब्लमे नहीं आया बतलाइये...हम ऐसेही इंतज़ार में बैठे रह गए कि जैसे पिरोब्लम प्रकट होएगी उसपर कोई धाँसू कविता या गद्य लिख मारेंगे और एक आध करोड़ का इनाम ले उड़ेंगे...लेकिन महान दुःख के लिए किसी महान समय में पैदा होते तो कुछ कालजयी लिख जाते...खैर...जाने दीजिए...हमारे अच्छा ना लिखने का सारा दोष समय का है :) :)
जिजीविषा ....इसे कहते है ..कहानिया ज़ारी रखना
Aapne sahi kaha hum sirf jeene ka dhong kar rahe hain.. jee toh Hari bhaiya rahe hain... adarsh pita, pati aur karmachari ki tarah.... hum kisi ek mein bhi abhi paanv jamane ki bas koshsih hi kar rahe hain...
दुनिया इतनी छोटी भी नहीं है कि हार मान ली जाये।
ये कहानी रही...इस छुट्टी की उपलब्धि..
ऐसी और कहानियाँ ढूंढ लाइए
ये लोग हैं जिंदगी के असली हीरो..
जिंदगी चलती है इसी धुप छांव संग और सुबह रोज रंग नए लाती है
सच्चे काउंसलर भी हैं हरि जी, स्वागत रहेगा.
हाँ ये दुनिया हरि भैया जैसे लोगों के बिना अधूरी है.
असली संघर्ष तो ऐसे ही लोगों ने किया है .
सच ही लिखा है आपने बहादुरी के साथ बिना हार माने ज़िंदगी जीने इसे ही तो कहते है हम आप जैसे लोग तो बस ज़िंदगी जीने का ढोंग मात्र करते है।
सचमुच जीवट के इंसान हरि भैया ..जिजीविषा पुरुष और सुपरमैन या अलादीन के जिन सरीखे :)
अईसा थोड़े है भाभीजी? जरूरी थोड़े है कि घोंघा नहीं खाए तो जीवन देखबे नहीं किए? सबका अपना-अपना जीने का तरीका होता है, अलग-अलग तरह का पिरॉबलम होता है।
क्या बात कही है! वाह!
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