ये कमबख़्त दोपहर किसी तरह काटे नहीं कटती। बिहार में बिजली नीतीश कुमार के साथ दौरे पर होती है (जिस शहर में सीएम, उस शहर में बिजली) और सीएम ने अंगक्षेत्र क्या छोड़ा, बिजली ने भी साथ छोड़ दिया। उमस से हैरान-परेशान हम बड़ी-बड़ी खिड़िकियों से बाहर झांकते हुए गुम हो गई हवा का पता ढूंढते हैं। दूर दिखाई देती सड़क पर पसरा सन्नाटा देखकर मेरा दिल जाने क्यों और डूबा जाता है। बीच-बीच में खामोशी सड़क पर गुज़रता कोई ट्रैक्टर तोड़ जाता है। लैपटॉप नहीं है, फोन नहीं है, किसी का इंतज़ार नहीं है। सबकुछ ठहरा हुआ है जैसे। फिर भी सुकून भाग जाने की तरकीबें जुटाते हुए क्यों मिलता है? ऐसी भी क्या बेकली?
एक-दो-तीन...छह-सात-आठ... रसोई में बन रहे व्यंजनों की गिनती करने के बाद मैं घबराकर बाहर निकल आई हूं। जाने गर्मी वजह है या रसोई में खड़े होने के ख्याल का एक टुकड़ा कि मेरा दम घुटने लगा है। प्रोडक्टिव होने के नाम पर तोरी छिलने औऱ प्याज़ काटने के अलावा मेरा कोई योगदान नहीं। मेरा मन ही नहीं लगता यहां, और मैं शायद ही बिना मन के रसोई में काम कर सकती हूं। कम-से-कम कोई तो एक जगह हो जहां मैं हथियार डाल सकूं। ले जाओ ये करेले से आती अमचूर की खुशबू, ले जाओ पुदीने का स्वाद, ले जाओ कढ़ी की नरमी और बासमती के टुकड़ों का स्वाद। गर्मी में ये सब ख़राब सेल्स पिच जैसा कुछ लगता है।
बच्चे अपनी दुनिया में मस्त हैं। उन्हें लीची तोड़ने, रेत के घर बनाने और एक-दूसरे से रूठने-मनाने-संभालने से फुर्सत नहीं। बच्चों के बापू के पास तीन अलमारियां भरकर ज़मीन से जुड़े मुकदमों की फाइलें हैं और उन ज़मीनों की चिंता है जिन्हें बचाए रखना है। मां और पतिदेव का आधा दिन एक कमरे से दूसरे कमरे में ज़मीन के काग़ज़ खोजते हुए गुज़रता है। मेरे पास लिखने के लिए कुछ नहीं। कहने के लिए कुछ नहीं। सुनने के लिए कुछ नहीं। बोरियत की पराकाष्ठा है। कहीं कुछ तो शोर हो कि चुप्पी दोपहर की तरह ही भयावह हो गई है।
कैथरीन स्टॉकेट ने साथ छोड़ दिया। अमीष की दोनों किताबें पढ़ने में कुल तीन दिन लगे। अब क्या करूं? हर बार यहां आती हूं तो लगता है, दुनिया मुझे छोड़कर बहुत आगे निकल गई होगी। पूरे दिन दुनिया को जानेवाली इकलौती वर्चुअल खिड़की फेसबुक और जीमेल भी तो खोलकर नहीं देखा, कि तेज़चाल वक्त गुज़रता होगा कहीं, हम तो यहीं ठहरे जाते हैं।
कमरे में लेटने के इरादे से आई हूं तो कबूतरी मेरे ऊपर से फड़फड़ाती हुई गई है। डर से तीस सेकेंड के लिए मेरी सांसें रुक गई हैं। उसके औचक निकास ने मेरे प्रवेश को रोक ही दिया होता, अगर बच्चों ने कमरे से क्रेयॉन्स लाने की ज़िद ना की होती। भीतर आई हूं तो पूरे कमरे को कबूतर के बच्चों ने गंदा कर रखा है। इन्हें बाहर निकालना होगा अब।
भाभीजी, आप एक कबूतर से परेशान हैं? आपके कमरे के रौशनदान में दो चमगादड़ और उसके तीन बच्चे हैं। यकीन ना हो तो मेज़ पर चढ़कर देख लीजिए। अभी तक तो छिपलकी,टिड्डे, चूहा, बिल्ली, कबूतर, कॉकरोच, रंग-बिरंगी तितली, लेडीबर्ड, मधुमक्खियां और मच्छर ही थे। अब चमगादड़ भी? पीसफुल को-एक्ज़िस्टेंस की इससे बेहतर मिसाल और नहीं मिलेगी।
रेगिस्तान से आईं बड़ी ननद रंग-बिरंगे पैकेट्स निकाल रही हैं। राजस्थानी नमकीन, बीकानेरी भुजिया, शक्करपारे, नमकपारे, लोबिया का मिक्सचर और पता नहीं क्या-क्या। बाकी आर्मी कैंटीन का माल है। हमने भी अपनी तरफ से लीची, आम, चीकू और पुदीने का शर्बत पेश कर दिया है। खाने-पीने की प्रतिस्पर्धा नहीं हुई तो गर्मी की क्या छुट्टी?
आओ रे बादलों कि आज आषाढ़ का पहला दिन है, सासू मां ने प्यार से क्या पुकारा है, शाम तक बादलों ने छत पर ऐसा घेरा डाला है कि सूरज ढलने से पहले ही अंधेरा घिर आया है। हम ज़ंजीर-सी हवा से बंधे हुए छत के एक कोने से दूसरे कोने में ढ़िमलाए फिर रहे हैं। नीलकंठ है, कोयल है, कठफोड़वा है, बया है, मैना और गौरैया तो हैं हीं, फ़ाख्ता है (जिसे मां पंडुक कहती हैं) और एक सुनहरे रंग की चिड़िया है जिसका कोई नाम नहीं बता पाया है। शाम इनके गीतों से गुलज़ार होने लगी है। जीना इतना भी मुश्किल नहीं, कि इंतजार का भी कोई ना कोई रंग-रूप होता है।
रात होते ना होते ऐसी मूसलाधार बारिश हुई है कि हमें खिड़की-दरवाज़े बंद करने पड़े हैं। अपने कमरे की एक खिड़की खोल कर मैं दूर सड़क पर बत्तियां जलाकर आती गाड़ियों को देखती हूं। जाने क्यों, लेकिन बारिश में मैं हमेशा मुंबई में ही होना चाहती हूं, और कहीं भी नहीं। बारिश में चमकते हेडलाइ्ट्स और सड़क पर पड़ती रौशनी की परछाई जाने कितने रंग की यादों में गहरे डुबो जाया करती हैं...
बारिश थमने लगी है और देर शाम पतिदेव ने बाहर ले जाने का प्रस्ताव रखा है। हम अपनी हवाई चप्पलों में गाड़ी में लद गए हैं और पहली बारिश में गीले हुए शहर का मुआयना करने निकल पड़े हैं। बच्चों की खिलखिलाहट और दीदी की चुटकियों के बीच किशोर कुमार की आवाज़ बरसने लगती है - ये ना सोचो इसमें अपनी हार है कि जीत है/ उसे अपना लो जो भी जीवन की रीत है/ये ज़िद छोड़ो, यूं ना तोड़ो हर पल एक दर्पण है...
मेरा आत्मालाप बंद होने लगा है और मैं आइसक्रीम खाते हुए खिड़की से बाहर अमलतास के गीले पेड़ों से टपकती बूंदें गिनने लगी हूं।
10 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर डायरी.
गर्मी की छुट्टियाँ आत्मीयता की गर्मी से सहनीय हो जाती हैं।
सुंदर लेख..हमेशा की ही तरह प्यारा ! इस बरस की पहली बारिश मुबारक :-)
क्या सचमुच आषाढ़ आ गया ?
आषाढ़स्य प्रथमे दिवसे ....मगर यहाँ तो ज्येष्ठ का और वह भी मृगशिरा का सूर्य तप रहा है .....
बाकी पुश्तैनी जमीन जायदाद का चक्कर तो कुछ मत पूछिए ..
मेरे एक मित्र विदेश के अपनी बहुत अच्छे वैज्ञानिक करियर को छोड़ फैजाबाद में आ गए और
अपनी रियासत सँभालने के चक्कर में तबाह हो गए हैं ..पत्नी बच्चे कोसते हैं तो मुझे फोन करके
गम गलत करते हैं .....
हाँ उस सुनहली चिड़िया की तस्वीर भेजिए हम झट से उसका नाम आपको रवाना करेगें !
बारिश की सौंधी गंध , व्यंजनों की खुशबू , इतने पक्षियों का कलरव ...कहाँ गर्मी रही अब !
सोंधापन और आर्द्र, आषाढ़ की शुरुआत जैसाकुछ कम-सा.
sondhi mahak
सौंधी सुंगंध लिए बहुत ही सुंदर संस्मरण ....
''एक सुनहरे रंग की चिड़िया है जिसका कोई नाम...
यह मौसम तो Golden Oriole का है.
रोचक डायरी!
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