चुप रहती हूं,
मन की कोई खलिश
तैरती रहती है
आंखों में पानी बनकर।
वो कहते हैं,
आंखें बोलती हैं
और चेहरा
खोल जाता है राज़।
मेरे अंदर का सब
जब यूं ही
छलक आता है
बार-बार,
तो फिर क्या कहूं मैं?
शिकवों का लफ्ज़ों में
बाहर आना
ज़हर उगलना ही तो है।
शिकवे आंखों से
बहते हुए ही
कोमल लगते हैं।
10 टिप्पणियां:
समझने वाले बिना कहे भी समझ जाते हैं, फिर कह के क्या फायदा |
कहने को बहुत कुछ था अगर कहने पे आते... यह गजल याद आ गई।
कविता जितनी सहज होती है, भीतर उतनी ही आसानी से पहुँचती है.
मेरे अंदर का सब
जब यूं ही
छलक आता है
बार-बार,
तो फिर क्या कहूं मैं?
और ये तो सबसे सुंदर
शिकवे आंखों से
बहते हुए ही
कोमल लगते हैं।
शिकवों का लफ्ज़ों में
बाहर आना
ज़हर उगलना ही तो है।
शिकवे आंखों से
बहते हुए ही
कोमल लगते हैं
बहुत सुन्दर ..
यह ज़हर ना बने और शीतल होकर आँखों से बह जाए...
सुन्दर रचना के लिए बधाई
मनोज
शिकवों का लफ्ज़ों में
बाहर आना
ज़हर उगलना ही तो है।
शिकवे आंखों से
बहते हुए ही
कोमल लगते हैं।
बहुत कोमल भाव..बहुत सुन्दर प्रस्तुति
शिकवों का लफ्ज़ों में
बाहर आना
ज़हर उगलना ही तो है।
शिकवे आंखों से
बहते हुए ही
कोमल लगते हैं।
बिल्कुल सही कहा आपने..
संवेदनशील रचना है आपकी -
आपकी लेखनी में एक आकर्षण है -
शुभकामनाएं
शिकवों का लफ्ज़ों में
बाहर आना
ज़हर उगलना ही तो है।
शिकवे आंखों से
बहते हुए ही
कोमल लगते हैं।
सहज सरल भाषा भी आंसू जैसे सरलता से के दिल तक पहुँचती है
latest post होली
चेहरा आईना... आँखें.. दिल की ज़ुबान...
~सादर
एक टिप्पणी भेजें