तुमने झांककर
कमरे में देखा है
कहा कुछ भी नहीं।
मेरा तपता माथा
तुम्हारी उंगलियों की
छांव ढूंढता है।
मेरी गर्म हथेली पर
क्यों नहीं उतरती
तुम्हारे पसीने की ठंडक?
मैं घूमकर बिस्तर पर से
खिड़की को देखती हूं।
दो हरे पर्दे हैं,
और है नीम की हरियाली।
आंखें तब क्यों
लाल-सी लगती हैं?
क्यों सब
मुरझाया लगता है?
तुम तेज़ चले जाते हो,
मैं भी तो
थमती, रुकती नहीं आजकल।
ये पछुआ हमको
और बहाए जाता है।
कुछ कोमल-सा जो
मन में था,
वो खुश्क बनाए जाता है।
मैं नींद में कुछ
डूबती-उतराती हूं,
आवाज़ों को
कभी पास बुलाती हूं,
कभी दूर भगाती हूं।
इसी खुमारी में मैंने
तुम्हारी सधी आवाज़ सुनी है।
उसमें घुलते सुना है
दो तोतली बोलियों को।
तीनों आवाज़ें अब
खिलखिलाती हैं,
कुछ गीत गाती हैं।
कभी फुसफुसाती हैं।
मेरे मन की रही-सही
शिकायतें
दो ठंडे मोती बनकर
तकिए पर लुढ़क आती हैं।
8 टिप्पणियां:
शिकायतें
दो ठंडे मोती बनकर
तकिए पर लुढ़क आती हैं।
बहुत ही खूबसूरत पंक्तियां ....
बहुत भाव भीनी प्रस्तुति। बिम्बों का उत्तम प्रयोग। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
विचार::मदिरा
साहित्यकार-श्रीराम शर्मा
भावनाओं को शब्द दे दिए आपने
प्यार हमें जिस रूप में चाहिए होता है, वैसे नहीं मिलता| मिलेगा तो वैसे ही जैसे प्यार करने वाला देना चाहेगा| सो, शिकायतों के वक़्त तोतली खिलखिलाहट को जेहन में जरूर रखें|
मन के भावों का उठता उद्वेग आखिर दो बूँद मोती के ...बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
bilkul motiyon se andaaj aur ehsaas
दो हरे पर्दे हैं,
और है नीम की हरियाली
हरियाली की व्याख्या कर दी आपने तो..
जीवन के रंगों का सजीव चित्रण.
एक अच्छी रचना के लिए बधाई स्वीकारें.
मनोज खत्री
उसमें घुलते सुना है
दो तोतली बोलियों को।
तीनों आवाज़ें अब
खिलखिलाती हैं,
कुछ गीत गाती हैं।
कभी फुसफुसाती हैं।
मेरे मन की रही-सही
शिकायतें
दो ठंडे मोती बनकर
तकिए पर लुढ़क आती हैं।
वाह ! पारिवारिक जीवन का निचोड़ उभर आया इन पंक्तियों में...
एक टिप्पणी भेजें