गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010

हो बाबू

उसकी कहानी मुझे भूलती नहीं। बचपन में सुना था 'हो बाबू' के बारे में। तब लड़की या औरत होने की खूबी-खामियों का अहसास भी नहीं था, ना फेमिनिज़्म या स्त्रीवाद से कोई परिचय था। यूं कहूं कि हो बाबू को मैंने पहली फेमिनिस्ट के तौर पर जाना तो अतिशयोक्ति ना होगी। उस महिला की कहानी ऐसे ज़ेहन में बसी है कि लगता है उसे मैंने बहुत करीब से जाना है, देखा-परखा-समझा है।

ऐसी ही कोई दोपहर रही होगी जब रांची के घर में पीछे के आंगन में खाट पर हम सब धूप सेंक रहे थे। तब वक्त हमारी मर्ज़ी से चलता था, हम अपनी सांस-सांस जीते थे। मां, चाची, दादी की गोद में सिर रखे घंटों गुज़र जाते थे लेकिन दिन ढ़लने का कोई मलाल ना होता था। घंटों-घंटों घर की महिलाएं अपने नैहर की कहानियों से दोपहर गुलज़ार करती थीं। उन्हीं किस्सों-कहानियों के रंग बुने जा रहे स्वेटरों, कढ़े जा रहे चादरों में उतरते थे। ऐसे पक्के रंग थे कि बीसियों साल बाद भी फीके ना पड़ें।

अनजाने में ही मैं अपनी मां की गर्दन पकड़कर झूल गई। मां ने परे हटाते हुए कहा, "मत तंग करअ हो बाबू।'' मां का इतना कहना भर था कि चाची को हो बाबू की कहानी याद आ गई।

गोपालगंज के एक गांव की हैं मेरी चाची। शादी नब्बे में हुई, और पहली बार अपने शहर, इलाके से बाहर निकलीं तो सीधा ससुराल ही पहुंची, हमारे दादाजी के घर रांची। बताती हैं कि ट्रेन पर भी पहली बार वो रांची आने के लिए ही चढ़ीं। गांव उनका निहायत ही पिछड़ा। लड़कियों की पढ़ाई सातवीं के बाद बंद हो जाती थी। जो अच्छे घरों की थीं, बियाह-शादी के नाम पर मैट्रिक-इंटर पास कर लेती थीं, वो भी प्राइवेट से। गांव में सवर्ण कम, पिछड़ी जातियों के परिवार ज़्यादा थे। लेकिन ज़ाहिर है, बोलबाला सवर्णों का ही था। गांव की आधी से ज्यादा आबादी का गुज़ारा सवर्णों के खेत-खलिहानों और घरों में काम कर चलता था।

तो चाची के यहां भी बिसेसरा और बिसेसरा बो (बिसेसरा की पत्नी) काम करते थे। बिसेसर का नाम विश्वेशर रहा होगा, लेकिन उसका अपभ्रंश रूप ही सबकी ज़ुबान पर चढ़ा। बिसेसर खेत में मज़दूरी करता और उसकी पत्नी घर में अनाज फटकने, भंडारघर साफ करने, दूध औटाने, दही जमाने का काम करती थी। मांग में टह-टह पीला सिंदूर, सांवले माथे पर चांद-सा बिंदा (चाची ने उसके आकार के अनुरूप बिंदा कहा, बिंदिया नहीं), कलाइयों में दर्जन-दर्जन भर कांच की रंग-बिरंगी चूडियां, पैरों में चमकता आलता और सीधे पल्ले की सूती साड़ी, जो सिर से ना सरकती थी। बिसेसरा बो के रूप का बखान तो जैसे मेरे मन में उतर गया और मैं उसकी कायल होने लगी।

लेकिन यहीं कहानी में नया मोड़ आ खड़ा हुआ। बिसेसर में एक ही ऐब था (एक ही?), वो शराब बहुत पीता था। शराब पीता तो होश में ना रहता और बेचारी बिसेसरा बो को जूतियाते-लतियाते उसकी वो हालत करता कि अगले दिन उसकी शक्ल पहचान में ना आती। लेकिन मांग का सिंदर फीका ना पड़ता ना ही बिंदा बिंदिया बन जाता। बिसेसरा बो अगले दिन चौके में चूड़ियां खनकाते ऐसे काम में जुटी पाई जाती कि जैसे कुछ हुआ ही नहीं। तो भला बिसेसर को भी कोई क्यों टोकता-समझाता। दिन-महीने-साल ऐसे ही गुज़रते चले गए। बिसेसर बो कूटती रही, बिसेसर सुबह-दर-सुबह कभी घर के बाहर, कभी खेतों में लुढ़का हुआ मिलता रहा। लेकिन किसी ने बीचबचाव करने की ज़रूरत ना समझी।

एक सुबह बिसेसर बो बड़ी खिली-खिली-सी चाची की मां के पास जाकर बैठी। ''काकी, हमरो खातिर अइसन टोपी मोजे बनवा देबू ना?''

''हां रे बिसेसर बो, तू अच्छी खबर तो ला, हम तेरे लिए पूरा जामा सिल देंगे।''

''तो काकी, बबुनी के कह द। सिल दीहें। चार महीना के बाद हम बबुआ लेकर आएब तोहरा आंगन में। काकी, काम हम तबहुं पूरा कर लेब। पीठ पर बबुआ के बांधल-बांधल सब हो जाई। बस काकी, तू हमरा खातिर जामा बनवा द।''

''चार महीने में? क्यों रे बिसेसरा बो? तुझे पहले पता नहीं चला क्या? अभी बता रही है। पता नहीं पिछले दिनों कितना भारी-भारी काम करवाया तुझसे। तेरे बच्चे को कुछ हुआ तो पाप हमें लगेगा।''

बिसेसरा बो ने दांत से जीभ काटी। ''ना काकी, हम सब क लेब। कुछ ना होई। तू देखत जा बस।''

मालिकों के घर में तो सबको समझा दिया बिसेसरा बो ने, लेकिन अपने पति को ना समझा पाई। लात-जूते-घूंसे बरसने का क्रम फिर भी चालू रहा। पता नहीं किस मिट्टी की बनी थी बिसेसरा बो कि अपने साथ-साथ अपने बच्चे को भी संभाले रखा।

बेटी हुई थी बिसेसरा को। रंग मां जैसा ही सांवला, लेकिन आंखे गोल-गोल कजरारी। बाल साईं बाबा से थे, ऐसे घूंघराले कि खींचो तो स्प्रिंग जैसे वापस लौट जाएं। दिन भर आंगन में लेटी-लेटी बिंदिया (मां ने उसे यही नाम दिया था) किलकारियां मार-मार कर सबको बुलाती रहती। ऐसी प्यारी थी कि पत्थर भी पिघल जाए, अनजान लोगों का भी दिल जीत ले।

बिंदिया छह-साढ़े छह महीने की हुई होगी। बिसेसर पर एक रात फिर भूत सवार हुआ। नशा था कि उसपर हावी होते ही दरिंदा बना छोड़ता था। जो हाथ में मिला, उसने अपनी घरवाली को उसी से पिटना शुरू कर दिया। बिसेसरा बो पिटती रही, लुढ़ककर कभी इस कोने गिरे, कभी उस कोने। तभी बिसेसर को जाने क्या सूझी कि उसने बालों से अपनी नन्हीं-सी बेटी को पकड़ा और उसे मां के ऊपर फेंक दिया। बिसेसर बो के तो जैसे होश ही उड़ गए। या बल्कि तब होश में आई वो। उसने बेटी को संभाला, रो-रोकर नीली पड़ती बेटी को चुप कराने के लिए कमरे से बाहर निकल गई। बेटी चुप हुई तो वो वापस कमरे में लौट आई। खटिया पर बेटी को लिटाया और अचानक उसका रूप ही बदल गया। अब बिसेसरा बो पर चंडी सवार थी। अपने पति की लाठी से ही उसने जीभर को उसकी मरम्मत की। सात सालों के ब्याह में जो उसने ना किया, आज कर रही थी। पति चीखता-चिल्लाता, धमकियां देता। लेकिन बिसेसरा बो की लाठी ना रुकी। अपने अधमरे पति को उसने घर से निकाल बाहर खेत में डाल दिया।

अगली सुबह वो घर आई तो लोग उसे देखते रह गए। कसकर पीछे बंधे बालों पर नीली पगड़ी, पति का झूलता कुर्ता, लाल पाढ़ वाली मटमैली धोती और हाथ में लाठी - बिसेसरा बो को ये क्या हो गया था?

आजी ने चिढ़कर पूछा, ''का हो गइल बा तहरा हो बाबू? इ का रंग-रूप ह?''

उसका जवाब था, ''अब इहे रूप रही आजी। हम हो बाबू हो गइनी। अपन बेटी के माई भी हम, बाप भी हम। कहब त राउर दुआर छोड़ देब लेकिन इन रूप ना छोड़ब।''

कुछ दिनों तक तो सबने सोचा, पति से नाराज़गी है, उतर जाएगी। गांववाले किस्म-किस्म की बातें करते रहे, कई अफवाहें भी उड़ीं। लेकिन हो बाबू टस से मस ना हुई। दिन-दर-दिन बेटी को बगल में दबाए वो काम पर उसी वेशभूषा में लौटती रही। सोनहुला गांव की हो बाबू के चर्चे दूर-दूर तक पहुंचे। लेकिन किवंदती बनी हो बाबू के अंदर की मां को किसी ने नहीं सराहा। जो पत्नी पिटती रही, वो मां ज़ुल्म बर्दाश्त ना कर सकी। अपनी बेटी के जहां की कोई खुशी उसे गवारा ना थी।

सुनती हूं कि उस बेटी को हो बाबू ने गोपालगंज पढ़ने भेजा, और आज वो किसी हाई स्कूल में पढ़ाती है। हो बाबू का आंगन नवासों से गुलज़ार है, लेकिन उनका रूप नहीं बदला। पगड़ी के नीचे के बाल चांदी हो गए, लेकिन पगड़ी का रंग फीका ना पड़ा। आज भी हो बाबू कलफ वाला कुर्ता और लाल किनारे वाली धोती के साथ खादी का गमछा लटकाए घूमती हैं।