मैं अक्सर इस बात से हैरान होती हूँ कि कैसे दिमाग़ की कोई एक ख़लल अदना-सी ख़्वाहिश रच लेती है, मन उस ख़्वाहिश को पालता-पोसता रहता है और फिर अचानक कुछ ऐसा होता है कि सारी वाह्य ताकत मिलकर उस ख़्वाहिश को पूरा करने में लग जाती है। अगर इसे लॉ ऑफ़ अट्रैक्शन की कोई एक टूटी-फूटी थ्योरी ही मान लें तब भी मैंने अपनी ज़िन्दगी में कई बार इस थ्योरी को काम करते देखा है।
पिछले हफ़्ते मैं अपनी साइकोथेरेपिस्ट के पास बड़ी हैरान-परेशान गई थी। मेरे पास मेरी नाजायज़ दुश्चिताओं का पिटारा था। हाल ही में एक सहेली के पति का अचानक सफ़र से लौटते हुए देहांत हो गया। दोनों पति-पत्नी अपनी बच्ची को विदेश की एक यूनिवर्सिटी में छोड़कर वापस अपने शहर लौट रहे थे। हवाई जहाज़ में ही दिल का दौरा पड़ा और उतरते-उतरते तक, अस्पताल तक पहुँचते पहुँचते तक उस दिल के दौरे ने एक अच्छे-ख़ासे सेहतमंद इंसान की जान ले ली। इस हादसे के लिए कोई तैयार नहीं था। हादसे के लिए कब कहाँ कोई तैयार हो पाता है!
मैंने मौत को कई बार बहुत करीब से देखा है। आख़िरी हिचकी में साँस जाते हुए देखा है, और जानती हूँ कि जिससे आप बेइंतहा मोहब्बत करते हैं, जिसके इर्द-गिर्द आपकी दिनचर्या चलती है, जिसके होने से आपके वजूद का एक हिस्सा है उसके चले जाने का, और इस तरह अचानक बड़ी तकलीफ़ में चले जाने का अफ़सोस और उस अफ़सोस से पैदा हुई असहायता कितनी बड़ी होती है। रात को अपने बिस्तर पर लेटो तो वो अफ़सोस, वो हेल्पलेसनेस हज़ारों सूई की नोंक से पूरे बदन, पूरी सोच को छलनी किए रहता है।
और चिंता की फ़ितरत तो मालूम है न? चुंबक से भी ख़तरनाक तासीर है उसकी। एक पालो तो हज़ार लोहे के कील की तरह की शंकाएँ आकर्षित करती है अपनी ओर।
बहरहाल, मैं अपनी थेरेपिस्ट के सामने बैठी थी। एक हज़ार शिकायतों का पिटारा था। मेरी पीठ पिछले एक महीने से इस बुरी तरह तकलीफ़ में थी कि मेरा उठना-बैठना-चलना मुश्किल था। मेरे भीतर एक अजीब किस्म का डिटैचमेंट पैदा हो रहा था। दुनिया को छोड़-छाड़ कर किसी गुमनाम जगह भाग जाने की ख़्वाहिश सिर उठाने लगी थी। रात-रात भर ये ख़्याल आता था कि अगर हममें से कोई एक भी मर गया तो ज़िन्दगी में क्या थमेगा, क्या चलेगा। सवालों की शख़्सियत किसी लिहाज से ख़ुशमिजाज़ तो कतई नहीं थी। हम क्यों हैं, किसलिए हैं, ये भागदौड़ क्यों, जीवन का मकसद क्या, मरकर क्या और जीकर क्या। बेतुके। बेहद बेतुके सवाल।
हम भरे-पूरे भी कमाल हैं, और तन्हा भी कमाल हैं।
थेरेपिस्ट ने कहा, "आँखें बंद करो और उन तीन लम्हों के बारे में सोचो जब यू फ़ेल्ट लकी, रियली रियली लकी।" ऐसे तीन लम्हों के बारे में सोचना दुश्वार लगा। आँखें बंद किए सोचती रही। और बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के जवाब दिमाग़ में तोप से निकले गोलों की तरह गूँजने लगे।
मुझे जन्म देने का सुख मिला है - एक बार में दो हसीन बच्चों को। और मुझे याद आए मेरे ही अपने लोग, जिन्होंने अपनी आधी ज़िन्दगी और पूरी कमाई एक बच्चे की कोशिश में निकाल दी।
मेरी टूटी हुई पीठ और शरीर में बहुत सारी तकलीफ़ के बावजूद मेरे पास एक घर है जहाँ मैं सुकून से जी सकती हैं, परिवार है जो मेरी दुखती रग पर हर वक़्त पेनकिलर लगाने के लिए तैयार रहता है, और इतने तो पैसे हैं ही कि मैं एक सेशन के लिए थेरेपिस्ट की सर्विस लेने की क्षमता रखती हूँ।
मुझे कई वो लम्हे याद आए जब मुझे प्यार मिला, बेइंतहा प्यार - एकदम अनकंडिशनल। ये लोग जो अपने पहलू में मेरे लिए जगह बनाते रहे हैं, मेरे दोस्त हैं, मेरे परिचित हैं, और कई बार तो अजनबी भी रहे हैं। ये वो लोग हैं जिनसे में काम-बेकाम, वक्त-बेवक्त, कभी ख़ुदगर्ज़ी में और कभी बेहद निस्सवार्थ भाव से मिलती रही हूँ। जिनसे अपना कुछ न कुछ बाँटती रही हूँ। ये बाँटना हमेशा इन्टैन्जिबल रहा है - अमूर्त। वक्त के रूप में, दर्द के रूप में, डर के रूप में, ख़्वाब के रूप में, यकीन के रूप में और शंकाओं के रूप में। इनमें से कईयों ने मेरे सामने सरेंडर किया यकीन से, कुछ के सामने मैं अपने भरोसे समेटने के लिए बिखरी हूँ। ये लोग क्यों हैं? ये लोग क्यों थे? किस्मत ही थी न! ख़ुश-किस्मत! लक!
और फिर आँखें बंद किए-किए ही मुझे याद आया एक शब्द - सेरेन्डिपिटी!
"सो, अनु! ओपन योर आईज़ एंड टेल मी… व्हाट मेड यू फ़ील रियली रियली लकी?" थेरेपिस्ट ने पूछा।
"सेरेन्डिपिटी। इन्सिडेन्ट्स ऑफ़ सेरेन्डेपिटी हैव मेड मी फ़ील रियली रियली लकी," मैंने जवाब दिया।
मैं सेरेन्डिपिटी नाम की एक गोली लिए लौट आई, इस सलाह के साथ कि मैं तबतक किसी की कोई मदद नहीं कर सकती जबतक ख़ुद ठीक न रहूँ। ये भी सच लगा कि मेरा डर किसी के काम नहीं आनेवाला था, उस सहेली के काम भी नहीं जो वैसे भी अपनी ज़िन्दगी से जूझ रही थी। शायद सेरेन्डिपिटी मेरे काम आती, शायद उसके लिए सेरेन्डिपिटी का इंतज़ार काम आता।
शब्दकोश सेरेन्डिपिटी के लिए ये तर्जुमा देता है - आकस्मिक लाभ, या अकस्मात से कुछ खोज करना। मैं सेरेन्डिपिटी को सुखद संयोग से जोड़ती हूँ। सेरेन्डिपिटी मेरे लिए वो हसीन इत्तिफ़ाक़ है जो ज़िन्दगी में मेरा यकीन बचाए रखता है।
जितनी ही बार मैं अचानक कुछ छोटा-बड़ा खोजने निकली हूँ, उतनी ही बार मेरे हाथ कुछ न कुछ लगा ज़रूर है। थेरेपिस्ट के सामने मैं एक्ज़िटेंशियल क्राइसिस के जवाब ढूँढने गई थी, जवाब में मुझे अपनी ही ज़िन्दगी का सबसे बड़ा हसीन राज़ मिल गया! सेरेन्डिपिटी ही तो है।
एक मिसाल देती हूँ। पिछले हफ़्ते मुक्तेश्वर जाने से दो दिन पहले मेरे पब्लिशर शैलेश भारतवासी मुझसे मेरे घर पर मिलने आए, इसलिए क्योंकि मैंने अपनी ही कुछ किताबें मँगाई थीं उनसे। बातों बातों में अपने नए प्रोजेक्ट के बारे में बात करते हुए मैंने शैलेश से कहा कि मैं एक मेल सिंगर की तलाश कर रही हूँ। शैलेश ने मुझे एक युवा सिंगर का नाम बताया, और हम दोनों ने मिलकर यूट्यूब पर उस सिंगर को खोजने की बहुत कोशिश की लेकिन मेरे हाथ कुछ न आया। बस सिंगर का नाम रह गया ज़ेहन में - हरप्रीत।
दो दिन बाद मैं शताब्दी में थी। कोई प्लानिंग थी नहीं लेकिन उसी ट्रेन में शैलेश दिखे - अकस्मात। और शैलेश को देखते ही मेरे दिमाग़ में फिर वो नाम आया - हरप्रीत, और ये कि मुझे वापस दिल्ली लौटकर इस सिंगर का पता करना है।
फिर मैं मुक्तेश्वर में थी, बल्कि सोनापानी के एक रिसॉर्ट में, जहाँ हम इकलौते मेहमान थे। मेज़बानों से बात करते हुए पता चला कि सोनापानी एक म्यूज़िक फ़ेस्टिवल और फ़िल्म फ़ेस्टिवल ऑर्गनाइज़ करता है। कुछ फ़ितरत मिलती थी, और कुछ बातचीत में मज़ा आ रहा था इसलिए मैंने अपने मेज़बानों से अपने नए प्रोजेक्ट की बात की और उन्हें वो गाने भी सुनाए जो हमने कम्पोज़ करवाए थे।
मेरी मेज़बान दीपा ने कहा, "तुमने हरप्रीत को सुना है कभी?" मैं चौंक गई। ये वही नाम तो था जिसके बारे में मैं पता करने की कोशिश कर रही थी! दीपा अपना आईपैड ले आई और मैंने हरप्रीत के कुछ गीत वहीं बैठे-बैठे ही सुन लिए। अगले दो घंटे में मेरे पास न सिर्फ़ हरप्रीत की पूरी सीडी थी (जो मुझे दीपा ने तोहफ़े में दी) बल्कि तीन दिन के भीतर दिल्ली में हरप्रीत से मिलवाने का वायदा भी था (मैं आज हरप्रीत से मिल रही हूँ!)।
सोचा कहाँ, खोजा कहाँ और खोज पूरी कहाँ जाकर हुई!
ये है सेरेन्डिपिटी। अब सोच रही हूँ तो ध्यान में आ रहा है कि जिस प्रोजेक्ट के लिए मैं हरप्रीत से एक बार मिलना चाहती थी, वो पूरा का पूरा प्रोजेक्ट ही सेरेन्डिपिटी के दम पर निकला है (उस प्रोजेक्ट - द गुड गर्ल शो के बारे में बातें फिर कभी)। इतनी ही अहमियत रखते हैं ये हसीन इत्तिफ़ाक़ और हम बेकार में अपना रोना लेकर दुनिया भर में भटकते फिरते हैं। अपने ग़म, अपने दुख, अपने डर बचाए रखते हैं ताकि लोगों के हिस्से के प्यार हमें मिलता रहे। दुनिया को एक ग़मगीन इंसान ख़ूब प्यारा होता है। दुख में डूबे गीत सबसे हसीन होते हैं। टूटे हुए एक दिल के क़िस्से बटोरने वाला कहानीकार हम सबका अजीज़ होता है।
लेकिन फिर भी, सेरेन्डिपिटी भी एक चीज़ होती है यार जो बटोरती है, समेटती है, यकीन देती है। ये सेरेन्डिपिटी अकाट्य, अटल लॉ ऑफ़ अट्रैक्शन का अकाट्य, अटल सत्य है।
7 टिप्पणियां:
ऐसे ही कुछ पढ़ते हुए अचानक से कोई ख़याल उपज आता है...मैं घुमन्तू पढ़ते हुए दो-ढाई साल पहले मुझे भी कोई गोली मिली थी।
Well woven! nice to read... Made me relate to some recent incidents in my life... N Smiles. 👍
अनु जी, बहुत दिनों बाद आपके ब्लॉग पर आना हुआ, उसके लिए क्षमस्व! लेकिन सच बताउं ये पोस्ट पढ़कर ऐसा लगा कि मैने यहां न आकर कुछ खोया है। खैर, अब आपकी बाकि की पोस्ट भी पढुंगी...क्योंकि बहुत बढ़िया लिखती है आप।
आपको पढ़ना हीserendipity हो गया आज तो
नया सलाम नयी दोस्ती के नाम
मिलते रहें
Always love to read you :-)
अनु जी आपको पढ़ना मेरे लिए एक नायाब एहसास है आपकी दोनों किताबें मम्मा की डायरी और नीला स्कार्फ़ मेरी शेल्फ में हमेशा जलवा नुमा रहती है कि किताबों की तरतीब में ये अफ़ज़ल तरीक़े से सजी हुई हैं और फुर्सत होते ही इन्हें फिर से पढ़ती हूँ ..आज आपकी ये ब्लॉग पोस्ट हाथ लगी हमेशा की तरह तहरीर दिल में उतरी ,और आपकी ये खोज मेरे हौसले को भी उड़ान दे गई कि यक़ीनन ख़्वाहिशात शिद्दतें इख़्तेयार कर लें तो पूरी हो ही जाती हैं ,,हर लफ़्ज़ अच्छा है इस पोस्ट का ।
Send Cakes Online to India for all readers.
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