गुरुवार, 21 नवंबर 2013

दिलासों को छूके, उम्मीदों से मिलके

एक छोटी सी बच्ची ट्रेन की पटरियों के ठीक बीचों-बीच बेफ़िक्री से चलती है। उसके दाएं हाथ में लाल फूलों का गुच्छा है। लाल नहीं, गहरे गुलाबी-नारंगी फूलों का। बुगेनवेलिया के फूलों का गुच्छा लिए वो लड़की इस तरह अकेली कहां जा रही होगी, मैं घबराकर सोचती हूं। तभी देखती हूं कि लड़की सुबक रही है - गहरी उदासियों वाली सिसकियों के साथ। मैं उस लड़की को गले लगाना चाहती हूं। Big hug - मन में सोचती हूं, सामने बढ़कर दे नहीं पाती।

किसी अनजान शहर में मुसलसल बर्फ गिरती रहती है। कई साल पहले बिछड़ गई एक सहेली को बर्फ़ में ठिठुरते देखती हूं बंद गाड़ी की खिड़की के पीछे से आते-जाते। हर बार सोचती हूं, उतरकर गले लगाऊंगी और हाथ थामकर गाड़ी में बिठा लूंगी। गाड़ी रुकती नहीं, बर्फ थमती नहीं, सहेली का ठिठुरना बंद नहीं होता। Big hug देने का ख़्याल धरा का धरा रह जाता है। मैं फिर एक पत्थर-सा भारी अफ़सोस लिए उठती हूं सुबह-सुबह।

उसके ठंडे बेजान पैरों पर एक बार फिर गहरा आलता लगाए देती हूं। उसकी सूजी हुई उंगलियों में शादी की अंगूठी नहीं है, एक दाग़ रह गया है बस। सफ़ेद कपड़े के पीछे से रंग-बिरंगे पत्थरों वाले ताबीज़ झांकते हैं। उसे इस हाल में देखकर पत्थरों पर से भी यकीन उठ गया है, ईश्वर पर से भी। ग़लती से मेरा हाथ आलते की शीशी पर लग जाता है और पूरा रंग उसके पैरों के पास बिखर जाता है। मैं डर कर रोने लगती हूं। यहां भी कोई नहीं आता, Big hug लिए। भीतर कुछ है जो फिर एक बार डूब जाता है। गले में रुलाई अटकी रहती है नींद में भी।

शुक्र है सुबहों का वजूद रातों से आज़ाद होता है।

आड़े-तिरछे बेतरतीब बेमानी सपनों में ही नहीं... मेट्रो में आते-जाते हुए, मेट्रो कंस्ट्रक्शन की वजह से दिल्ली की और तंग हो गई सड़कों पर गाड़ी चलाते हुए, किसी प्लश से दफ़्तर में किसी का इंतज़ार करते हुए, बिना इंटरनेट के नए फ़ोन में सिर घुसाए मसरूफ़ दिखने का झूठा दिखावा करते हुए, बस स्टॉप पर बच्चों का इंतज़ार करते हुए, मॉर्निंग वॉक से लौटते हुए... एक ही ख़्याल तारी रहता है आजकल - किसी को गले लगाने का बेतुका ख़्याल, और गले लगकर जीभर कर रो लेना का बेतुका ख़्याल।

फिर मम्मी के पास होना चाहती हूं मैं अचानक। पूछना चाहती हूं कि ऐसी बेचैनियां कितनी पीढ़ियों को शाप में मिलती हैं? किस महर्षि का ध्यान भंग किया था किस जन्म में हमने कि पूरी ज़िन्दगी की तपस्या सज़ा के तौर में मिली? तीसरी पीढ़ी तक तो चैन नहीं है। आद्या को क्या सौंपूंगी? उसे शाप से बचाए जाने का कोई तो प्रायश्चित होगा मम्मी...

सुबह फिर रात की पूंछ थामे आई है। मुझे जाड़ों की सुबहें ज़रा भी नहीं भाती। धूप की नरमी न हो तो सुबह का मतलब ही क्या? रात गुज़र जाए और नींद न आए तो उससे बड़ी सज़ा क्या? डरावने सपनों को ख़्वाबों से रिप्लेस न किया तो फिर जिएं कैसे? विरह न हो तो प्रेम की परिभाषा कैसे समझ में आए? टूटन सताए न तो समेटने का ख़्याल कहां से लाएं?

ऐसी ही है तो ऐसा ही हो। मुझे डॉ कुमार से मिलने की सख़्त ज़रूरत है।

मैं जानती हूं डॉ कुमार क्या कहेंगी। उनकी समझदारी और डॉक्टरी पर, उनके हीलिंग पावर पर मेरी सोचने-समझने की शक्ति कई बार भारी पड़ती है। ठीक उसी तरह, जिस तरह उनके दिए हुए संबल पर मेरा परिताप भी भारी पड़ता है कई बार। बहुत सूक्ष्म हैं ये परिताप। बांधते भी नहीं, लेकिन इनसे ख़ुद को आज़ाद करना भी मुश्किल लगता है। इन सूक्ष्म तंतुओं को तोड़ने की ज़िद में कहीं कुछ बड़ा नष्ट न हो जाए, इस डर से मैं डॉ कुमार से भी अपना एक हिस्सा बचाए रखती हूं। कुछ ज़ख़्म हरे रहें तो ही ठीक।

लेकिन ज़िन्दगी में ऐसे विरोधाभास कई बार नितांत आवश्यक होते हैं। डर आता है तो हिम्मत ढूंढने का सबब मिलता है। प्यार होता है तो परिताप भी, क्लेश भी। देवताओं के माथे गुनाहों का कलंक सबसे गहरा होता है।  जो सबसे ज़्यादा प्यार बांटता है, वही सबसे ज़्यादा खाली होता है भीतर से। शब्द अधूरे होते हैं तभी उच्चारण मांगते हैं। चाराग़र अपनी ही जानलेवा बीमारी का इलाज नहीं कर पाता।

कुछ डर, कोई आशंका, कोई तिश्नगी, कोई उद्विगनता, किसी के प्रति अबूझ स्नेह, कहीं अटकी हुई बेजां श्रद्धा और कहीं पीछे रह गया किसी किस्म का एक अफ़सोस - ज़िन्दगी ऐसे ही बनती है शायद। उम्मीदें और दिलासे, प्यार और big hug इसी विरोधाभास को बचाए रखते हैं।

ये सब सोचते हुए उठती हूं एक कठिन रतजगे के बाद बिस्तर आख़िर छोड़ ही देती हूं और बच्चों को आवाज़ लगाती हूं। 6.45 के बाद उठने का मतलब है बस के छूट जाने की पूरी गुंजाईश बन जाना।

बच्चे नींद में भी शायद मां की बेकली पहचानते होंगे। मैंने मांगा नहीं - बिग हग - बड़ी सी झप्पी, और बेटा अपने आप बिस्तर से सरकते-सरकते मेरी गर्दन के आस-पास कहीं जगह बनाते हुए अपना बासी मुंह मेरी गर्दन के भीतर घुसेड़ देता है। बेटी भाई की देखा-देखी पीठ से लटक जाती है।

मेरे इर्द-गिर्द दो सुरक्षा चक्र हैं, और कई तरह के विरोधाभास। बच्चों का प्यार न चाहते हुए भी खलिश भर ही देता है कई बार।

मैं गुलज़ार और पंचम को आवाज़ देती हूं अपने लैपटॉप पर फिर एक बार, और ख़ुद को एक बार और याद दिलाती हूं कि खुशी उस तितली का नाम है जिसे पंखों से पकड़ना होता है और इंसान उस बच्चे का नाम जिसे खुशी नाम की तितली को पंखों से पकड़कर जेब में घुसेड़ लेना का हुनर आ ही जाता है अपने आप - ज़िन्दगी के तमाम विरोधाभासों के बीच भी।

बाकी, दिलासों को छूते हुए, उम्मीदों से मिलते हुए ज़िन्दगी ठीक उसी तरह कट जाती है जैसे आज का दिन कट जाएगा।

***

कभी पास बैठो,
किसी फूल के पास
सुनो जब महकता है
बहुत कुछ ये कहता है

कभी गुनगुना के
कभी मुस्कुरा के
कभी चुपके चुपके
कभी खिलखिला के

जहां पे सवेरा हो, बसेरा वहीं है

कभी छोटे-छोटे
शबनम के कतरे
देखे तो होंगे
सुबह-ओ-सवेरे
ये नन्हीं-सी आंखें
जागी हैं शबभर
बहुत कुछ है दिल में
बस इतना है लब पर

जहां पे सवेरा है, बसेरा वहीं है

न मिट्टी न गारा
न सोना सजाना
जहां प्यार देखो
वहीं घर बनाना
ये दिल की इमारत
बनती है दिल से
दिलासों को छूके,
उम्मीदों से मिलके

जहां पे बसेरा हो, सवेरा वहीं है




3 टिप्‍पणियां:

सागर ने कहा…

मीडियम के लिए लिखने में कभी कभी अपने ऊपर बोझ सा नहीं लगता कि ये मॉस के लिए लिख रहे हैं सो इसे सकारात्मक होना ही पड़ेगा ?

आई स्ट्रांगली डिसएग्री फॉर थिस जेनुइनली सच
बट
दिस झांसे वाला लिखना.

सागर ने कहा…

वेल एनीवे, जागो ग्राहक जागो !

Pallavi saxena ने कहा…

सही ऐसा सोचते हुए ही ना जाने रोज़ कितने जन्म जी जाते है हम और ज़िंदगी यूं ही गुज़रती चली जाती है।