कौटिल्य पंडित को
टीवी पर देखकर दिमाग में जो पहली बात आई थी, उसके बारे में सोचकर मझे कई बार
अफ़सोस हो चुका है। मैंने सोचा, “कौटिल्य नाम का ये
जीनियस मेरे बच्चों से तो सिर्फ एक साल छोटा है!” जितनी तेज़ी से ये ख़्याल मेरे मन में आया, उतनी
ही संजीदगी से ये बात भी ज़ेहन में आई कि ख़ुद को जागरुक और संवेदनशील बताने वाले
हम मां-बाप भी आख़िर किस हद तक ढोंगी हो सकते हैं! हम सब तमगे चाहते हैं, ट्रॉफी किड्स चाहते हैं –
उस तरह के बच्चे जिनका घर, बाहर, समाज और यहां तक कि सोशल मीडिया पर दिखावा करने
का मौका मिल सके।
बच्चों को लेकर
हमारी प्रतिस्पर्धा उनके पैदा होते ही शुरू हो जाती है। बच्चे किस अस्पताल में
पैदा हुए, और कितने बड़े पेडियाट्रिशियन के पास से हमने टीके लगवाए - यहां से शुरू
हुई ये स्पर्धा उनके बैठने, बोलने, चलने और कब कितना क्या-क्या कहा के हिसाब के
तौर पर स्क्रैप-बुक्स, एलबम्स और लाइव स्टेटस अपडेट्स में जमा होने लगी है। मैं
मानती हूं कि अपने बच्चों को बड़ा करना एक किस्म का सेलीब्रेशन होना चाहिए - एक
किस्म का जश्न-ए-बचपन - क्योंकि बच्चों को बड़ा करने के साथ-साथ हम भी न सिर्फ अपना
बचपन जी रहे होते हैं, बल्कि उनके साथ-साथ ख़ुद भी बड़े हो रहे होते हैं। बच्चे
हमें सब्र का पाठ पढ़ाते हैं। बच्चे हमें प्यार करना सीखाते हैं। बच्चे हमें जीने
का सलीका बताते हैं। लेकिन इसका मतलब बच्चों के साथ हमेशा परफेक्ट होने की
ज़्यादती करना कतई नहीं हो सकता।
लेकिन बदकिस्मती से हमने
एक ऐसा समाज बना लिया है जो बच्चों की मासूमियत और उनका बचपन छीनने का काम बख़ूबी
और सीना ठोक कर करता है। ये वो समाज है जहां हमारे बच्चों की आंखों पर पट्टियां
लगाकर उन्हें ज़िन्दगी की रेस में तभी छोड़ दिया जाता है जब उनकी उम्र अपनी सीधे
खड़े होने की भी नहीं हुई होती। इसके पीछे बड़ा कारण एक ही है – हमें पेरेन्ट्स या
अभिभावक के तौर पर खुद को अव्वल साबित करना है। इसलिए बच्चों की परवरिश हमारे लिए
वो प्रोजेक्ट हो जाती है जिसमें ए-प्लस हासिल करना ज़िन्दगी का सबसे बड़ा लक्ष्य
बन जाता है।
हमारे बच्चे किस
स्कूल में पढ़ते हैं, स्कूल से आने के बाद कितनी तरह की हॉबी क्लासेस में जाते
हैं, क्लासिकल संगीत के साथ-साथ टेनिस क्लासेस के लिए जाते हैं या नहीं, स्कूल में
ग्रेड्स कैसे लेकर आते हैं, उनका बर्ताव कैसा है, उनकी शख़्सियत कैसी है – इन सारी
बातों पर हमारी लम्हा-लम्हा नज़र होती है। हम अपने काम में चाहे कितने ही फिसड्डी
क्यों न हों, जाड़े की सुबह दफ़्तर जाने के लिए रजाई को छोड़ने से पहले बॉस को
कितनी ही गालियां क्यों न दे दें, ख़ुद दूसरों से किस तरह पेश आते हैं उसके बारे
में भले कभी न सोचा है, लेकिन बच्चे हमें परफेक्ट चाहिए। अपनी अपेक्षाओं का भार
अपने बच्चों को कोमल कंधों पर रखते हुए हमें ज़रा भी हिचक नहीं होती। क्यों भला?
मैं एक और वाकया
सुनाती हूं। गर्मी की छुट्टियां काटने के लिए दोपहर में अपने पांच साल के जुड़वां
बच्चों को मैंने ड्राईंग कॉपी और वॉटर कलर के डिब्बे पकड़ा दिए थे। बच्चों को भी
बड़ा ज़ा आ रहा था। जब तक बच्चे मेरे अपेक्षा के मुताबिक ब्रश को कलर में डुबो के
आराम से पेंटिंग करते रहे, मैं उनकी तस्वीरें खींचती रही, वीडियो लेती रही। इन
सभ्य और कलाकार बच्चों पर नाज़ करती रही। बच्चे तो बच्चे ठहरे। थोड़ी देर में उनका
मन ड्राईंग बुक से ऊब गया और उन्हें रंगों के साथ खेलने में इतना मज़ा आने लगा कि
उनके शरीर, चेहरे और हथेलियां पर देखते ही देखते मॉडर्न आर्ट के कई डिज़ाईन उतर
गए। पूरा रंग कमरे में और फर्श पर बिखर चुका था। खेल-खेल में सूरत ऐसी बिगड़ी कि
मुझे तेज़ गुस्सा आ गया। अभी दस मिनट पहले मैं जिन ‘सभ्य’ और ‘परिष्कृत’ बच्चों पर फ़ख्र कर रही थी, वही बच्चे अब मेरी
नाराज़गी की चपेट में आ चुके थे।
किसने तय किया कि
बच्चे कैसे पेंटिंग करेंगे? उनके हमेशा बच्चों के तरीके से काम करने की अपेक्षा
क्यों की जाती है? हम इतनी सारी बंदिशों में क्यों रखते हैं उनको? उन्हें उनके
तरीके से जीने देने में हमें इतनी तकलीफ़ क्यों होती है? सच तो ये है कि उन्हें
उनके तरीके से हम तभी जीने देते हैं जब हमारी सहूलियत की बात आती है। हमारे पास
वक़्त नहीं है तो उन्हें टीवी देखने दिया। हम शाम को वक्त पर घर नहीं लौट पाए तो
उनके लिए खिलौने ले आए। हमारे पास उनके दोस्तों से मिलने और उन्हें जानने का वक्त
नहीं है तो उन्हें मॉल ले गए। हमारे पास उनकी पसंद का खाना बनाने की फ़ुर्सत नहीं
है तो उन्हें पिज़्जा और बर्गर खिला दिया। अपनी सहूलियत के हिसाब से सब ठीक, लेकिन
जब बच्चों ने इनमें से कुछ भी अपनी मर्ज़ी से मांगा तो हमने बड़ी आसानी से कह
दिया, “आजकल के बच्चे ही बिगड़े हुए हैं।”
बच्चे बिगड़े हुए
नहीं हैं। हम बिगड़ चुके हैं। हमारे बच्चे हमारा ही प्रतिबिंब होते हैं। उनकी सोच,
उनके रहन-सहन, उनके तौर-तरीकों में हमारी शख़्सियत ही झलकती है और ये बात
वैज्ञानिक रूप से साबित भी हो चुकी है। एक बेहतर समाज बन सके, इसके लिए बहुत
ज़रूरी है कि हम बच्चों के लिए एक अच्छा माहौल बनाएं। इस गलाकाट और बेरहम दुनिया
में बच्चों का तो क्या, हमारा भी गुज़ारा मुश्किल से हो रहा है। बच्चों की
ज़रूरतें सुविधाएं, विलासिता, आईपैड और मोबाइल फोन नहीं, हमारा वक्त और हमारा
प्यार है। अपने बच्चों का प्यार से पालन-पोषण करना अपने भीतर प्यार और इंसानियत
बचाए रखने का सबसे कारगर तरीका है और बच्चों को उनके हिस्से का प्यार और सम्मान
मिले, इसके लिए हर बच्चे का कौटिल्य पंडित होना भी कतई ज़रूरी नहीं।
('खुशबू' में प्रकाशित कवर स्टोरी - लिंक है http://dailynewsnetwork.epapr.in/184374/khushboo/13-11-2013#page/1/1)
4 टिप्पणियां:
बिल्कुल सही बात है । बच्चे अपने माता-पिता को परिभाषित करते हैं ।
वाकई, बच्चे नहीं कहीं न कहीं हम ही बिगड़ गए हैं।
क्या खूब लिखा है अन्नू, मज़ा आ गया यह पोस्ट पढ़कर। खुद का आईना दिखती पोस्ट है यह, सच सौफ़ीसदी सच बातें लिखी है तुमने वाकई बच्चे बिगड़े हुए नहीं है हम बिगड़े हुए है... एक बेहतर समाज बन सके, इसके लिए बहुत ज़रूरी है कि हम बच्चों के लिए एक अच्छा माहौल बनाएं। मगर कैसे ?? बस यहीं आकर सारा सब कुछ ठंडा पड़ जाता है।
वाकई बहुत सही लेख लिखा है आपने !!
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