मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

ख़्वाब और हक़ीकत

एक बेचैन-सा ख्वाब है,
जो सुबह होने पर भी
पलकों का साथ नहीं छोड़ता।

नींद टूटी है,
घूमकर देखा है मैंने तुमको।
हल्के हाथों से छुआ है माथा।
हां, सपना तो नहीं,
तुम ही हक़ीकत हो।

फिर कौन-सी भूली ख्वाहिश
आ जाती है यूं ही कभी
खटखटाने मेरा दरवाज़ा,
भरमाने मुझे मेरी नींद में
और कभी-कभी जागते हुए भी?

कुछ भूले-बिसरे लोग हैं,
और है पीछे छूटा हुआ शहर
जो मुझसे टूटे वायदों का
मोल पूछने चला आता है
यूं ही किसी दिन ख्वाब में।

और मैं नींद से जागकर
यूं ही छू लेती हूं तुम्हें।
ख्वाब तो नहीं,
हक़ीकत में ही जीना है मुझको।

6 टिप्‍पणियां:

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

खूबसूरत एहसास

vandana gupta ने कहा…

बेह्द खूबसूरत ख्याल्।

Manish Kumar ने कहा…

कहीं पढ़ा था...


ख़्वाब और हक़ीकत में फर्क सिर्फ इतना है
ख़्वाब टूट जाता है, हक़ीकत तोड़ देती है

Anupama Tripathi ने कहा…

बीते हुए लम्हों की सुंदर याद और हकीकत का स्पर्श...!!
बहुत सुंदर रचना

मनोज कुमार ने कहा…

आपके साथ ख्वाब और हक़ीक़त से रू ब रू होना अच्छा लगा।

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना ने कहा…

वर्त्तमान में विगत की दस्तक ......हकीकत में ख़्वाब की दस्तक ........एक मीठा सा अहसास ...........खूबसूरत अभिव्यक्ति