एक चादर ऐसी लाओ मम्मा
जो सूरज का चेहरा ढंक दे।
धूप को बांधे अपने अंदर,
और थोड़ी-सी छाया रख दे।
ऐसी हो वो चादर मम्मा
जो बरसाए मोती नभ से।
रोशन कर दे अपनी दुनिया,
और खुशियां ही खुशियां बरसे।
ऐसी हो वो चादर मम्मा
जिससे कभी ना पांव निकले।
जब चाहें, जैसा भी चाहें
अपने जीवन को हम जी लें।
ऐसी हो वो चादर मम्मा
घर जैसा सुख दे देती हो।
जब चलती हो हवा बर्फ-सी
आंचल में मुझको भरती हो।
ऐसी हो वो चादर मम्मा
कभी ना जो मैली पड़ती हो।
जिसका वितान आसमां सा हो,
धरती पर वो आ गिरती हो।
ऐसी हो वो चादर मम्मा
मज़हब, भाषा को ना जाने
जब सिर पर देनी हो छांव
सबको अपना-सा ही माने।
बुन दो ऐसी चादर मम्मा
हमको भी थोड़ा जीने दो।
बूंद-बूंद जो जीवन-रस है
बिना डरे हमको पीने दो।
2 टिप्पणियां:
बेहद नई रचना. कमाल की कल्पना. और बेहतर लेखन.
शुभकामनाएं. जरी रहें.
sundar...
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